बहेलिये के एक तीर ने युग का अंत कर दिया . श्री कृष्ण का महाप्रस्थान और ऐश्वर्यमयी द्वारका समुद्र में विलीन ! बलवान काल के आगे अर्जुन के बाणों की प्रखरता क्षीण पड़ गयी थी । द्वारका से श्री कृष्ण के रनिवास को सुरक्षित लाने का प्रयास भीलों द्वारा मार्ग में उनके हरण का कारण बन गया .
सब कुछ बदल गया था ,लेकिन जीवन का क्रम अनवरत चलता रहा ।महाभारत के साथ बहुत-कुछ बीत गया .हर विपद् में सहारा देनेवाला अभिन्न मित्र खोकर नर एकाकी रह गया.प्रिय सखा अब कभी नहीं मिलेगा जान कर भी पांचाली ,दिन बिताती रही .
और फिर प्रस्थान की बेला आ गई .
पाँचो पाँडव द्रौपदी के साथ हिमालय की ओर चल पड़े.
हिमालय के भव्य और दिव्य परिवेश में आगे और आगे और ऊपर चढने लगे वे पाँचो अपनी सहधर्मिणी द्रौपदी को लिए .
शिखर-शिखर चढ़ते जा रहे थे ,जीवन भर संघर्ष से थके प्राणी .अंत में विजय मिली थी, पर क्या-क्या मूल्य चुकाना पड़ा .
आरोहण का क्रम जारी रहा .भयंकर शीत ,पग-पग पर धमकाती उद्दंड हवायें पल-पल विचलित करती जीवनी-शक्ति खींचे ले रही हैं.लड़खड़ाते ,एक दूसरे को सहारा देते बढ़े जा रहे है धीरे-धीरे !
सर्व प्रथम द्रौपदी की सहनशक्ति ने जवाब दे दिया . अग्नि-संभवा पाँचाली जीवन भर ताप झेलती रही .उसके जीवन का उपसंहार हो रहा था चिर-शीतल शिखरों के बीच .
गिर पड़ी द्रौपदी .
द्रुत गति से अर्जुन आगे आए .वही लाए थे उसे कितने स्वयंबर में जीत कर ,अपने पौरुष की परीक्षा देकर .
प्रिया को अंतिम क्षणों में बांहों का सहारा देने आगे बढ़े .
'नहीं .'युधिष्ठिर ने रोक दिया .
,'अब उसे किसी की आवश्यकता नहीं बंधु,उस ओर अकेले ही जाना है .'
जिस नारी ने जीवन भर हमारा साथ दिया आज हम उसके लिए कुछ नहीं कर पा रहे हैं .क्या कभी कुछ कर पाए ?आज भी इतना विवश क्यों हैं पार्थ ?
द्रौपदी ने क्षण भऱ को नेत्र खोले .पाँचो पर दृष्टिपात किया ,अर्जुन पर आँख कुछ टिकी .जैसे बिदा मांग रही हो .बहुत धीमें बोल फूटे 'हे गोविन्द!'और जीवन भर जलनेवाली वह वर्तिका बुझ गई .
..भीम के आगे बढते पग थम गए .नकुल,सहदेव स्तब्ध .
अर्जुन ने आँसू छिपा लिए .भीम धम्म से वहीं बैठ गए .
युधिष्ठिर स्थिर हैं .
बस अब कुछ नहीं है यहां .चलो, आगे चलो .
*
कोई भ्रम न पालें कि यह किसी 'भानुमती' का कुनबा है इसलिए किसी दीप्तिमती के वाणी-वैभव की प्रत्याशा न करें.यह लोक वाली 'भानमती'का क्षेत्र है ,जिसे जब जैसा 'भान' होने लगता है बोलने पर उतर आती है-न विषय का तारतम्य न भूमिका-उपसंहार की औपचारिकता .बस जो कहना है मुक्त मन से कह डाला - कहावत जैसा बेमेल - 'भानमती का कुनबा'! . '
बुधवार, 28 अप्रैल 2010
पि. नं.4.- गाय का सींग
*
बहुत छोटी थी तब की एक घटना है .
याद इसलिए आ गई कि अभी थोड़ी देर पहले मेरा 7-8 साल का पोता मेरे पास आकर बैठा और होंठों के साइड में घाव के छोटे-से निशान पर पर हाथ रख कर बोला ,'बड़ी मां ये क्या है ?'
बच्चे को तो बताना ही था -हुआ यह था कि
तब हमलोग मध्य-प्रदेश -तब मध्य-भारत -के एक छोटे से शहर अमझेरा में रहते थे..मेरी एक सहेली थी सरजू ,हम दोनों के घर आमने सामने थे .
बीच में एक मैदान था जिसमें बच्चे खेलते थे और लोगों के गाय-गोरू भी बँधते थे .
तब घरों में गायें पालने का रिवाज था .चारे के भारे लाद-लाद कर घसियारे चक्कर लगा कर बेंच जाते थे .मां पूर्णिमा और अमावस को चारे के भारे खरीद कर गायों को खिलाती थीं .
उस दिन पूर्णिमा थी ,मेरी माँ ने गायों को चारे का गट्ठर डाला था .कई गाएं खा रही थीं .
हम लोग बाहर खेल रहे थे .
खेलते-खेलते ,सरजू और मेरा झगड़ा हो गया .
खेल खतम .कुछ देर खड़े रहे कि आगे क्या हो फिर वह मुँह चिढ़ा कर अपने घर भाग गई .मैंने भी मुँह चिढ़ाया था पर वह भाग चुकी थी उसने देखा ही नहीं .
मैं खड़ी मैदान में .
गाएँ चारा खाए जा रही हैं .उन्हीं में सरजू की गाय भी है .
ये इसकी गाय क्यों खा रही है ?चारा तो मेरी माँ ने डाला है .जब सरजू का मुझसे झगड़ा है तो उसकी गाय क्यों खाए यह हमारे घर का चारा ?
उसकी गाय उस समय गट्ठर में से एक पूला बाहर खींच रही थी .
मैं तुरंत बढ़ी आगे और खींचे हुए पूले का दूसरा सिरा पकड़ कर उसके मुँह से खींच लेना चाहा .
गाय ने मुंह घुमाकर जो सींग मारा ,गहरा घाव हो गया था .बस ये कहो गाल के आर-पार नहीं हुआ.
उसके निशान आज भी मेरे बाएँ गाल पर होंठ के साइड में विद्यमान हैं .
पोता सुनता रहा .फिर उठा और एक बार और मेरा निशान छू कर देखा .पूछा ,'दर्द तो नहीं होता ?'
उत्तर पाकर मुस्कराता हुआ चला गया .
मैं समझ गई उसे किसने भेजा है .
ये बातें सिखा कर और कौन भेज सकता है ! हँसें रहे होंगे दोनों मिल कर !
*
बहुत छोटी थी तब की एक घटना है .
याद इसलिए आ गई कि अभी थोड़ी देर पहले मेरा 7-8 साल का पोता मेरे पास आकर बैठा और होंठों के साइड में घाव के छोटे-से निशान पर पर हाथ रख कर बोला ,'बड़ी मां ये क्या है ?'
बच्चे को तो बताना ही था -हुआ यह था कि
तब हमलोग मध्य-प्रदेश -तब मध्य-भारत -के एक छोटे से शहर अमझेरा में रहते थे..मेरी एक सहेली थी सरजू ,हम दोनों के घर आमने सामने थे .
बीच में एक मैदान था जिसमें बच्चे खेलते थे और लोगों के गाय-गोरू भी बँधते थे .
तब घरों में गायें पालने का रिवाज था .चारे के भारे लाद-लाद कर घसियारे चक्कर लगा कर बेंच जाते थे .मां पूर्णिमा और अमावस को चारे के भारे खरीद कर गायों को खिलाती थीं .
उस दिन पूर्णिमा थी ,मेरी माँ ने गायों को चारे का गट्ठर डाला था .कई गाएं खा रही थीं .
हम लोग बाहर खेल रहे थे .
खेलते-खेलते ,सरजू और मेरा झगड़ा हो गया .
खेल खतम .कुछ देर खड़े रहे कि आगे क्या हो फिर वह मुँह चिढ़ा कर अपने घर भाग गई .मैंने भी मुँह चिढ़ाया था पर वह भाग चुकी थी उसने देखा ही नहीं .
मैं खड़ी मैदान में .
गाएँ चारा खाए जा रही हैं .उन्हीं में सरजू की गाय भी है .
ये इसकी गाय क्यों खा रही है ?चारा तो मेरी माँ ने डाला है .जब सरजू का मुझसे झगड़ा है तो उसकी गाय क्यों खाए यह हमारे घर का चारा ?
उसकी गाय उस समय गट्ठर में से एक पूला बाहर खींच रही थी .
मैं तुरंत बढ़ी आगे और खींचे हुए पूले का दूसरा सिरा पकड़ कर उसके मुँह से खींच लेना चाहा .
गाय ने मुंह घुमाकर जो सींग मारा ,गहरा घाव हो गया था .बस ये कहो गाल के आर-पार नहीं हुआ.
उसके निशान आज भी मेरे बाएँ गाल पर होंठ के साइड में विद्यमान हैं .
पोता सुनता रहा .फिर उठा और एक बार और मेरा निशान छू कर देखा .पूछा ,'दर्द तो नहीं होता ?'
उत्तर पाकर मुस्कराता हुआ चला गया .
मैं समझ गई उसे किसने भेजा है .
ये बातें सिखा कर और कौन भेज सकता है ! हँसें रहे होंगे दोनों मिल कर !
*
शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010
पि. नं.3.दादा चुप !
बात सलूके की भी आई थी ।तो और सुनिये-
हमारे एक दादा ,डिप्टी इन्सपेक्टर ऑफ़ स्कूल्स थे ।
काफ़ी टूरिंग करना पड़ता था पर खातिर भी खूब होती थी ।
दादा ने ही बताया था ।एक बार सर्दी के मौसम में किसी गाँव के स्कूल में दौरे पर गये ।रात में वहीं रुकने की व्यवस्था हुई ।
गाँव में खेती की चीज़ें तो सुलभ होती हैं ।गन्ने का रस आजाता था रसावर बनने के लिये औरघड़े में भर कर सिरका भी अच्छा तैयार हो जाता था ।तब गुड़ बनने का मौसम था ।
खुले में बड़े-बड़ कढ़ाहों में भर कर गन्ने का रस औटता रहता था ।सोंधी गंध से बातावरण महक उठता था (यह तो मैंने मुज़फ़्फ़र नगर में खूब देखा है ,वहां तो तपते हुये गुड़ में मेवा डलवा कर साल भर के लिये जमवा लेते थे ।)जाड़ों में ताज़ा गुड़ दूध के साथ अच्छा लगता हो और फ़ायदा भी करता है ।और गर्म गुड़ तो खाना खाने के बाद मज़े से खाया जाता है ।
तो खाना खाने बाद दादा से पूछा गया गर्म गुड़ खानो को ।उन्होंने कहा ,'ले आओ ,थोड़ा-सा ।'
एक आदमी भट्टी पर दौड़ा गया ।गर्मागर्म गुड़ आया ।काहे पर ?
कोई बर्तन तो वहाँ था नहीं सो एक ग्राँववाले ने एक कपड़े को फैला कर उस पर गुड़ धर दिया .आदमी ने लाकर दादा के सामने प्रस्तुत कर दिया ।
दादा ने देखा ,'ये काहे पर रख लाये हो ?'
'कुछ नहीं साब ,कपड़ा मिला उसी पर रख लाये ।'
कपड़ा ?हुँह तो किसी औरत का सलूका था ।
दादा चुप ।
'नहीं,नहीं ।गुड़ खाने की बिल्कुल इच्छा नहीं है ।'
बड़ी मुश्किल से उन्होंने उस दिन उस गुड़ से पिण्ड छुड़ाया ।
मैंने पूछा,'दादा ,सच्ची में सलूका था ?'
'और नहीं तो क्या !पहले अम्माँ भी तो पहनती थीं ।हमें क्या पता नहीं ?बिल्कुल किसी औरत का उतारा हुआ सलूका था ।'
मेरे मुँह से निकला ,' सलूका ! चलो ,फिर भी गनीमत है ।'
भाभी मुस्करा रहीं थीं और दादा बेचारे फिर चुप !
*
हमारे एक दादा ,डिप्टी इन्सपेक्टर ऑफ़ स्कूल्स थे ।
काफ़ी टूरिंग करना पड़ता था पर खातिर भी खूब होती थी ।
दादा ने ही बताया था ।एक बार सर्दी के मौसम में किसी गाँव के स्कूल में दौरे पर गये ।रात में वहीं रुकने की व्यवस्था हुई ।
गाँव में खेती की चीज़ें तो सुलभ होती हैं ।गन्ने का रस आजाता था रसावर बनने के लिये औरघड़े में भर कर सिरका भी अच्छा तैयार हो जाता था ।तब गुड़ बनने का मौसम था ।
खुले में बड़े-बड़ कढ़ाहों में भर कर गन्ने का रस औटता रहता था ।सोंधी गंध से बातावरण महक उठता था (यह तो मैंने मुज़फ़्फ़र नगर में खूब देखा है ,वहां तो तपते हुये गुड़ में मेवा डलवा कर साल भर के लिये जमवा लेते थे ।)जाड़ों में ताज़ा गुड़ दूध के साथ अच्छा लगता हो और फ़ायदा भी करता है ।और गर्म गुड़ तो खाना खाने के बाद मज़े से खाया जाता है ।
तो खाना खाने बाद दादा से पूछा गया गर्म गुड़ खानो को ।उन्होंने कहा ,'ले आओ ,थोड़ा-सा ।'
एक आदमी भट्टी पर दौड़ा गया ।गर्मागर्म गुड़ आया ।काहे पर ?
कोई बर्तन तो वहाँ था नहीं सो एक ग्राँववाले ने एक कपड़े को फैला कर उस पर गुड़ धर दिया .आदमी ने लाकर दादा के सामने प्रस्तुत कर दिया ।
दादा ने देखा ,'ये काहे पर रख लाये हो ?'
'कुछ नहीं साब ,कपड़ा मिला उसी पर रख लाये ।'
कपड़ा ?हुँह तो किसी औरत का सलूका था ।
दादा चुप ।
'नहीं,नहीं ।गुड़ खाने की बिल्कुल इच्छा नहीं है ।'
बड़ी मुश्किल से उन्होंने उस दिन उस गुड़ से पिण्ड छुड़ाया ।
मैंने पूछा,'दादा ,सच्ची में सलूका था ?'
'और नहीं तो क्या !पहले अम्माँ भी तो पहनती थीं ।हमें क्या पता नहीं ?बिल्कुल किसी औरत का उतारा हुआ सलूका था ।'
मेरे मुँह से निकला ,' सलूका ! चलो ,फिर भी गनीमत है ।'
भाभी मुस्करा रहीं थीं और दादा बेचारे फिर चुप !
*
पिटारा नं . 2 .- वाह चाट !
बात बाहर जाकर चाट खाने की हो रही थी ।
,दिल करता है खाते चले जाओ ..' वृंदा ने बताया था ,'खूब करारी सिंकी टिक्की और गोलगप्पों का क्या स्वादिष्ट पानी कि खाते चले जाओ ,जी न भरे ।'
सोचा आज वहीं चला जाये ।
पहुँचे ।देशी घी की महक बाहर तक आ रही थी ।कुछ लोग डटे थे आलू की टिक्की ,कचौरी वगैरा खा रहे थे ।इधर पाँच-छः लोग हाथों में दोने पकड़े खड़े थे ,चाटवाले का एक आदमी स्टील के बाल्टे के पास बैठा गोल-गप्पों में मटर भर-भर कर उन्हें बाल्टे में दुबो-डुबो कर बारी-बारी से उनके बढ़े हुये दोनों पर देता जा रहा था जिसे फ़ौरन खा लेते थे और दोनें में गया पानी पी डालते ।
हमने भी पहले गोलगप्पे खाये । स्वादिष्ट थे ।
फिर हमलोग अंदर लगी हुई मेज़ो पर जम गये ।
दो छोकरे ग्राहकों की सर्विस में लगे य़े -यही बारह-चौदह साल के । वालों में तेल चमक रहा था पसीना भी होगा ।मौसम गर्मी का था नेकर कमीज़ पहने ।
प्लेटों में चटनी हालते समय एक लड़के के हाथ में लग गई ,उसने फ़ौरन हाथ नेकर की बैक पर रगड़ लिये ।ये लोग जब हाथ धोते तो पोंछते थे लिये पहने हुये नेकर की बैक पर ।कभी नाक छूते कभी पसीना पोंछते अपने काम को अंजाम दिये जा रहे थे ।
इधऱ-उधर निगाह डाली ,कहीं कोई तौलिया या अँगौछा नहीं दिखा कि लड़के हाथ धोकर पोंछ लें ।हाँ, गाहकों के लिये जरूर वाशबेसिन के नल के पास खूँटी पर एक छोटा-सा टॉवेल लटक रहा था ।
हथ धोने की जरूरत तो सबसे ज्यादा इन लड़कों को है ।पर उनके नेकर का बैक ही उनका पुछना है ।
मन गहरी वितृष्णा से भर उठा ।
चाट का सारा स्वाद बेस्वाद हो गया था किसी बहाने से उठ कर भागे वहाँ से ।
जितनी गन्दगी मिक्स होगी ,चाट उतनी ही स्वादिष्ट होगी - हमारे जीजाजी ने ठीक कहा था ।कहा तो उन्होंने यह भी था कि देशी घी तो कहने के लिये है कितना डालते हैं कुछ पता नहीं ,हाँ बीच-बीच में आग पर टपका देते है, वह घी असली ही होता है ।
*
,दिल करता है खाते चले जाओ ..' वृंदा ने बताया था ,'खूब करारी सिंकी टिक्की और गोलगप्पों का क्या स्वादिष्ट पानी कि खाते चले जाओ ,जी न भरे ।'
सोचा आज वहीं चला जाये ।
पहुँचे ।देशी घी की महक बाहर तक आ रही थी ।कुछ लोग डटे थे आलू की टिक्की ,कचौरी वगैरा खा रहे थे ।इधर पाँच-छः लोग हाथों में दोने पकड़े खड़े थे ,चाटवाले का एक आदमी स्टील के बाल्टे के पास बैठा गोल-गप्पों में मटर भर-भर कर उन्हें बाल्टे में दुबो-डुबो कर बारी-बारी से उनके बढ़े हुये दोनों पर देता जा रहा था जिसे फ़ौरन खा लेते थे और दोनें में गया पानी पी डालते ।
हमने भी पहले गोलगप्पे खाये । स्वादिष्ट थे ।
फिर हमलोग अंदर लगी हुई मेज़ो पर जम गये ।
दो छोकरे ग्राहकों की सर्विस में लगे य़े -यही बारह-चौदह साल के । वालों में तेल चमक रहा था पसीना भी होगा ।मौसम गर्मी का था नेकर कमीज़ पहने ।
प्लेटों में चटनी हालते समय एक लड़के के हाथ में लग गई ,उसने फ़ौरन हाथ नेकर की बैक पर रगड़ लिये ।ये लोग जब हाथ धोते तो पोंछते थे लिये पहने हुये नेकर की बैक पर ।कभी नाक छूते कभी पसीना पोंछते अपने काम को अंजाम दिये जा रहे थे ।
इधऱ-उधर निगाह डाली ,कहीं कोई तौलिया या अँगौछा नहीं दिखा कि लड़के हाथ धोकर पोंछ लें ।हाँ, गाहकों के लिये जरूर वाशबेसिन के नल के पास खूँटी पर एक छोटा-सा टॉवेल लटक रहा था ।
हथ धोने की जरूरत तो सबसे ज्यादा इन लड़कों को है ।पर उनके नेकर का बैक ही उनका पुछना है ।
मन गहरी वितृष्णा से भर उठा ।
चाट का सारा स्वाद बेस्वाद हो गया था किसी बहाने से उठ कर भागे वहाँ से ।
जितनी गन्दगी मिक्स होगी ,चाट उतनी ही स्वादिष्ट होगी - हमारे जीजाजी ने ठीक कहा था ।कहा तो उन्होंने यह भी था कि देशी घी तो कहने के लिये है कितना डालते हैं कुछ पता नहीं ,हाँ बीच-बीच में आग पर टपका देते है, वह घी असली ही होता है ।
*
पिटारा नं. 1.- गार्डियन
*
मुझे- देख-देख कर हँसी आती है ।एक छोटा-सा बच्चा भी ,अगर वह लड़का है तो अपने को अभिभावक समझने लगता है ।मैं अगर ठीक से कपड़े न पहने होऊँ तो शर्मिन्दगी मेरे बेटे को होती है ।वह पूरा ध्यान रखता है ।
जब में नहा कर निकलती हूँ तो पेटीकोट-ब्लाउज़ पहने - घर में और कोई नहीं होता - हाथपाँव में क्रीम लगाना ,बाल काढ़ना आदि काम कर लेती हूँ .साड़ी पहनने के लिए कमरा अधिक ठीक जगह है .
उसे इस पर आपत्ति होती है ।मुझे फ़ौरन टोकता है - 'मम्मी ,ठीक से कपड़े पहनिये ।'
और ख़ुद चाहे टायलेट से आया हुआ शेम-शेम ही खड़ा हो !
*नहा कर ,पेटीकोट-ब्लाउज़ पहने ,बालों में तौलिया लपेटती जब बाथरूम से निकली .
सनी ने इलास्टिकवाला जाँगिया उतार फेंका था और सिर्फ़ बनियान पहने बराम्दे में खेल रहा था .
मुझे आते देख खड़ा हो गया .
कुछ क्षण ध्यान से देखा फिर बोला ,मम्मी ,थीक छें कपले पेनो .
मैने ध्यान नहीं दिया .तौलिया खोल कर बाल झाड़ने लगी ..वह ज़ोर से चिल्लाया- मम्मी .
क्या है- मैंने पूछा
कपले पेनो .
पहने तो हूँ ने अपने पर सावधानी से नज़र डालते हुए कहा .
थीक छे पेनो .
अच्छा तो ये बात है -मेरे खाली पेटीकोट-ब्लाउज़ पहनने पर इन्हें ऑब्जेक्शन है .
,ज़रा ख़ुद को तो देखें न जागिया न शर्ट ,सिर्फ़ बनियान पहने खड़े है और मुझ पर ताव दिखा रहे हैं .
मुझे हँसी आ गई ,
सनी माँ को अधूरे कपड़े पहने देख खिसियाय़ा ,पास आकर फिर चिल्लाया -मम्मी कपले पेनो ,धूती पेनो अब तो हँसी रुक नहीं रही ,निर्झर की अबाध धारा सी बही चली आ रही है ,हँसे चली जा रही हूँ .आँख-नाक-मुँह ,सब हँसी से भरे हुए .
सनी माँ को इस रूप को किंचित् क्रोध से देख रहा है ,और कपले पेनो की रट लगाए है .उसे मां का व्यवहार बड़ा अनुचित लग रहा है .
हँसती हुई कमरे में घुस गई .
सुनो ,तुम्हारा बेटा अभी से मेरा गार्डियन समझने लगा है अपने को ..
*
मुझे- देख-देख कर हँसी आती है ।एक छोटा-सा बच्चा भी ,अगर वह लड़का है तो अपने को अभिभावक समझने लगता है ।मैं अगर ठीक से कपड़े न पहने होऊँ तो शर्मिन्दगी मेरे बेटे को होती है ।वह पूरा ध्यान रखता है ।
जब में नहा कर निकलती हूँ तो पेटीकोट-ब्लाउज़ पहने - घर में और कोई नहीं होता - हाथपाँव में क्रीम लगाना ,बाल काढ़ना आदि काम कर लेती हूँ .साड़ी पहनने के लिए कमरा अधिक ठीक जगह है .
उसे इस पर आपत्ति होती है ।मुझे फ़ौरन टोकता है - 'मम्मी ,ठीक से कपड़े पहनिये ।'
और ख़ुद चाहे टायलेट से आया हुआ शेम-शेम ही खड़ा हो !
*नहा कर ,पेटीकोट-ब्लाउज़ पहने ,बालों में तौलिया लपेटती जब बाथरूम से निकली .
सनी ने इलास्टिकवाला जाँगिया उतार फेंका था और सिर्फ़ बनियान पहने बराम्दे में खेल रहा था .
मुझे आते देख खड़ा हो गया .
कुछ क्षण ध्यान से देखा फिर बोला ,मम्मी ,थीक छें कपले पेनो .
मैने ध्यान नहीं दिया .तौलिया खोल कर बाल झाड़ने लगी ..वह ज़ोर से चिल्लाया- मम्मी .
क्या है- मैंने पूछा
कपले पेनो .
पहने तो हूँ ने अपने पर सावधानी से नज़र डालते हुए कहा .
थीक छे पेनो .
अच्छा तो ये बात है -मेरे खाली पेटीकोट-ब्लाउज़ पहनने पर इन्हें ऑब्जेक्शन है .
,ज़रा ख़ुद को तो देखें न जागिया न शर्ट ,सिर्फ़ बनियान पहने खड़े है और मुझ पर ताव दिखा रहे हैं .
मुझे हँसी आ गई ,
सनी माँ को अधूरे कपड़े पहने देख खिसियाय़ा ,पास आकर फिर चिल्लाया -मम्मी कपले पेनो ,धूती पेनो अब तो हँसी रुक नहीं रही ,निर्झर की अबाध धारा सी बही चली आ रही है ,हँसे चली जा रही हूँ .आँख-नाक-मुँह ,सब हँसी से भरे हुए .
सनी माँ को इस रूप को किंचित् क्रोध से देख रहा है ,और कपले पेनो की रट लगाए है .उसे मां का व्यवहार बड़ा अनुचित लग रहा है .
हँसती हुई कमरे में घुस गई .
सुनो ,तुम्हारा बेटा अभी से मेरा गार्डियन समझने लगा है अपने को ..
*