बुधवार, 30 जून 2010

लुगाइयाँ

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ड्राइँगरूम में अखबार छाँट रही थी इतने में दरवाज़ा खुलने की आवाज़ आई ।मेरे पति किचेन में चाय का पानी रखने चले गये थे ,इस समय की चाय वही बनाते हैं और मैं चाय पीकर काम में लगती हूँ ।मैनें ध्यान नहीं दिया कौन आया है ,किचेन से सामने दिखाई देता दै , देख लेंगे अपने आप.
'अरे ,ये क्या हो रहा है?'
पड़ोस की शीला की ज़ोरदार आवाज़ सुन कर मैं चौंकी , कुछ दुर्घटना हो गई क्या? कहीं आग तो नहीं लग गई ?
अखबार फेंक कर मैं चिल्लाई ,'क्या हो गया ?
'अरे ,यहाँ क्या कर रहे हैं आप ?' शीला कफ़ी उत्तेजना में थी ,
'जाइये ,निकलिये आप !'
इतने में हड़बड़ाती हुई मैं पहुँची ,'क्या हुआ शीला ,क्या हुआ?'
'हुआ क्या ?भाई साब आप क्या कर रहे हैं यहाँ..यहाँ किचेन में?'
ये हकबका गए -
'ज़..जरा,चाय बना रहा था ।'
'जाइये ।हमें नहीं अच्छा लगता आप करे यह सब ।लाइये हम बना दें चाय।'
कहकर शीला मेरी ओर उन्मुख हुई ।
'उन्हें चौके में घुसा दिया,और आराम से वहाँ बैठी हो ?'
'आराम से बैठी हूँ !अखबार छाँट कर लगा रही थी ।पता है सुबह से क्य-क्या कर चुकी हूँ ?'
' उससे क्या फ़रक पड़ता है! मैं तो अभी की बात कर रही हूँ तुम यहाँ मज़े से न्यूज पढ रही हो और वो वहाँ धंधे में लगे हैं ।
मैने सोचा अगर मज़े से भी बैठी होऊँ तो इसे क्या परेशानी ।
पति हड़बड़ा कर चौके से बाहर आ गये थे ,झेंपे हुये से -जैसे चाय बनाना कोई अपराध हो ।
मैंने कहा ,'अच्छा, तो तुम चाय बना रही हो शीला ?ठीक मुझे यहीं पकड़ा देना और चाहो तो अपने लिये एक कप पानी और बढ़ा देना ।मैं तब तक अख़बार निपटा लूँ ।'
मैंने उसकी ओर देखा ही नहीं और बोलती गई ,' ड्राइँगरूम में लेती आना शीला ,यहीं पी लूँगी ।'
उसका बस चलता तो मुझे कच्चा चबा जाती ।
पता नहीं ये महिलायें इस टाइप की क्यों होती हैं और कैसे होती हैं । किसी दूसरी के आदमी को जहाँ घर का कुछ काम करते देखा उनका जी एकदम दुखने लगता है फ़ौरन दौड़ती हैं ,'अरे,अरे आप यह काम कर रहे हैं ।लाइये हम कर दें.'
पराये आदमी को उसके ही घर का काम करते देखना उनके लिये कष्टकर होता है ।उसकी पत्नी को सुनाती हैं,'अरे भाई साहब तो इतना काम करते हैं ,एक हमारे ये हैं जिनसे अपने आप गिलास भर कर पानी भी नहीं भी पिया जाता ।'
मैं सोचती हूँ -नहीं पिया जाता तो मैं क्या करूँ ?तुम जानो वे जाने ।हमारे यहाँ तमाशा क्यों खड़ा कर रही हो ?
चाहे बहिन हो चाहे भाभी .अपनी बहिन या ननद से उन्हें सहानुभूति नहीं होती ।ऐसे मौकों पर पराये आदमी का दुख देख उनका जी तड़प जाता है .बाढ़ की तरह सहानुभूति उमड़ती है और उसकी पृष्ठभूमि में चलती हैं अपने आदमी की शिकायतें !बड़ी उलाहने भरी टोन होती है ।उनका बस चलता तो इस पराये पुरुष की जगह अपने ब्याहे को काम निबटाने के लिये ला खड़ा करतीं ।
पर दूसरी महिला और अपना पति तो उस समय कटघरे में खड़े होते हैं ।
अगर महिला काम के बोझ से पिसी जा रही है तो वह उस पर दया का प्रदर्शन कर कुछ चैन पा लेती हैं ।कहेंगी ,'देखा बिचारी को !इतना भी टाइम नहीं कि चैन से खाना खाले !'
उनका मन हल्का हो जाता है ।।
'लेकन उस बिचारी के पति अगर काम में हाथ बँटाने लगें तो उन पर जैसे आसमान टूट पड़ेगा । सारा बिचारापन उसके पति के लिये रिज़र्व हो जायेगा ।कोई-कोई तो सीधे उसके सामने अपने पति से झींकने लगेंगी,'देखो भाई साहब कितना काम करवाते हैं ,और एक तुम हो !'
पति बेचारा चुप !क्या बोले ?रहना तो घर में उसी के साथ है .जल में रह कर मगर से बैर कैसे करे !इधर महिलायें करुणामयी होती हैं उन्हें करुणा करने के अवसर चाहियें . दूसरी महिला की स्थिति दयनीय नहीं होगी तो उन्हें दया करने का मौका कहाँ मिलेगा ।और पराया आदमी ? वह जैसा है बहुत अच्छा है।दूसरे की थाली का लड्डू हमेशा अपने से बड़ा दिखाई देता है ।पराये पति के लिये सहानुभूति के भंडार भरे हैं जिन्हें खोलने से उसकी पत्नी का सिर जतना नीचे झुकता है सहानुभूतिमयी का उसी ही कोण पर ऊँचा उठने लगता है । दूसरी औरत पर तरस खा परम तोष का अनुभव होता है ।
और अगर उनका अपना पति कभी काम कराने को तैयार भी हो जाय तो उन्हें विश्वास है कि यह आदमी कुछ नहीं कर पायेगा ।बात - बात पर टोकती चलेंगी अगर में कुछ करे तो उन्हें बराबर चिन्ता खाये जायेगी -'लेथन फैला रहा है ,कुछ भी ठीक नहीं कर रहा है।'' गैस बेकार फुँक रही है ,घी-तेल की बर्बादी हो रही है ।'तुम रहने दो ,और मेरा काम बढ़ा कर रख दोगे'जब तक आदमी किचेन से बाहर नहीं जायेगा लगातार टोकती रहेंगी ।
अंत में हार कर वह कह देगा ,'लो सम्हालो अपना किचेन ,मेरे बस का नहीं ।'
बस !यही तो वे चाहती हैं ।यही बताना चाहती हैं कि यह सब उसके बस का नहीं ।सच है अगर उसके बस का हो जाये तो इनकी क्या इम्पार्टेन्स रह जायेगी ?
उन्हें पराया आदमी काम करता हुआ बड़ा सुघड़,कुशल और सलीकेवाला लगता है और अपना निरा निखट्टू ,लापरवाह और बे-शऊर !पराया आदमी बड़ा सुशील, बड़ा निरीह और अपना मरद बिगड़ैल बैल दिखाई देता है । मुँह से चाहे न कहें मुद्रा से सब व्यक्त कर देती हैं ।
अगर कुछ कहो तो साफ़ जवाब है -मैने तो कुछ कहा ही नहीं ।
वाह !चित भी मेरी और पट्ट भी ।

बुधवार, 23 जून 2010

उदासीनता की पराकाष्ठा

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अपने देवताओं के प्रति हमारी आस्थाएँ कितनी दृढ़ हैं कितना श्रद्धा-भाव है !
विवाहादि मंगल-कार्यों में निमंत्रण-पत्रों पर विघ्नहर्ता गणपति की हल्दी-कुंकुंम से सज्जित आकृति चिपका कर और कार्य पूर्ण होने की प्रार्थना के साथ रीति निभा दी .और काम पूरा होते ही ,गया सब कचरे में .
निमंत्रण पत्र तो खास समय की बात है ,हर साल कैलेन्डरों में भगवान का कोई रूप मनोहर रंग-रूप दे छपवाते हैं . टँगा रहते हैं साल भर दीवार पर और फिर पुराना होते ही उतार कर फेंक दिया- साल दर साल यही .बीड़ी का बंडल ,पान-मसाला ,दियासलाई ,जरूरत-बेज़रूरत की सारी चीज़ों पर उनके रूप और नाम आँक दिये .उन के नाम से बेचने में दोहरा फ़ायदा ! और बाद में सब की सब बेकार की चीज़ हो कर रह जाती है - नालियों में ,कूड़े के ढेरं पर गंदगी में और पाँवों के नीचे जूते-चप्पलों से कुचली जाती हुई !
और तो और गले में टाँग लेते है पेन्डेन्ट में ढाल कर ! क्या करें बेचारे . भगवान हैं न ,श्रद्धा और प्रेम के भूखे - पसीने से नहाते के शरीर-गंध झेलते ,पाउडर चाटते लटकते झूलते-डोलते रहते हैं.

और भी - गलियों में ,सड़कों के किनारे ,के किसी चबूतरे या आले में स्थापित देव- प्रतिमाएँ !
भक्त आए पूज कर प्रार्थना कर गए !प्रसाद धर गए, दूध चढ़ा गए -जो बह-बह कर नालियों में जा रहा है और कुत्ते चाट रहे हैं .कुछ लोग कुछ सिक्के भी चढ़ा जाते है ,जिन्हें सड़क चलते लड़के उठा कर अपने व्यसन पूरे करते हैं.
देखते सब हैं पर क्या फ़र्क पड़ता है किसी को ?जब तक काम तब तक मान !
भक्ति(स्वार्थ-प्रेरित) के आवेग का उतार, श्रद्धा का नकारापन ,पूज्यभाव की प्रतिक्रिया क्या कहें इसे ?
या फिर उदासीनता की पराकाष्ठा !

बुधवार, 16 जून 2010

नए लोक-शब्द

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अभी से सुनना-समझना शुरू कर दीजिए. नहीं तो पिछड़ जाएंगे .कुछ दिनों में ये शब्द साहित्यिक प्रयोगों में आने लगेंगे .क्योंकि पुराने तो विस्थापित होते जा रहे हैं ,लोगों को दुरूह लगने लगे हैं ,उनकी अर्थवत्तापर संकट आता जा रहा है ,और ये नये टटके शब्द जनभाषा के हैं ,साहित्य को जनभाषा में ला कर उसे जनता के लिए अति बोध-गम्य बनाने का प्रगतिशील विचार इन्हींको सिर-आँखों धरेगा .
इनका आाविष्कार हमारी कामवालियों ने किया है .घर में झाड़ू-पोंछा ,चौका बर्तन ,कपड़े धोना आदि काम ही नहीं सब देखती -समझती हैं .उनकी निरीक्षण क्षमता गज़ब की है और टीवी की कृपा से उनका मानसिक स्तर और विकसित होता जा रहा है ,रहन-सहन बोल-चाल सब पर दूरगामी प्रभाव !
आपने 'फर्बट' शब्द सुना है ?
हमन तो इनके मुख से बहुत दिनों से सुनते आ रहे हैं .
अपनी कोई साथिन जब उन्हें अपने से अधिक चाक-चौबस्त लगती है तो चट् मनोभाव प्रकट करती हैं ,-'अरे, उसकी मत पूछो ,क्या फर्वट है !'
इस युवापीढ़ी का अर्थ-बोध और मौलिक उद्भावनाएं गज़ब की हैं
फर्वट - इसका मतलब है फ़ारवर्ड !
और फिरंट का मतलब जानते हैं ?
जो अपने से आगे बढ़ी हुई लगे उसे कहेंगी 'फिरंट'(फ़्रंट से बना है)-इसमें थोड़ा तेज़-तर्राक होना भी शामिल है.
'टैम' ने समय को विस्थापित कर दिया है ।और माचिस ! दियासलाई हैं भी कोई अब ?
सलूका ,अँगिया आदि वस्त्र ग़ायब हो गये उनका स्थान ले लिया है ,ब्लाउज ,आदि ने।
हमारे एक परिचित हैं अच्छे पढ़े-लिखे उनका कहना है स्टोर्स में लेडीजों का माल भरा पड़ा है. एक दिन बोले हमारा पप्पू शूज़ों का बिज़नेस करेगा .
शूज़ों का बिज़नेस - यह भी सही है! शू का मतलब तो एक पाँव का एक जूता जब कि जूते हमेश दो होते है- शूज़ :और उसका बहुबचन शूज़ों ठीक तो है .
अब कोई प्याली में चाय तक नहीं पीता ,कप में पीते हैं ।
थालियों में कौन खाता हैं सब पलेट में खायेगे ,चाहे फ़ूलप्लेट हो या छोटी पलेट .
और हिन्दी भी बदल रही है अब तो
देखिए न अच्छे-पढ़े लिखे लोग सफ़ल लिखते हैं ? सफल लिख-बोल कर अपनी हेठी क्यों करें ?
अब मालिनें भी फूल नहीं 'फ़ूल' बेचती हैं -फ बोलने से जीभ में झटका लगता है फल नहीं फ़ल खाना सभ्यता का लक्षण है.
अंग्रेज़ी भाषा की तो बात ही मत पूछो ।अनपढ़ लोग, गाँव के वासी यहाँ तक कि महरी ,जमादारिन मालिन सबके सिर चढ़ कर बोल रही है ।
जो जनता बोले वही असली भाषा - आगे तो वही चलबे करेगी !
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शनिवार, 12 जून 2010

सब ऐसे ही करते हैं ।

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कानपुर शहर .चुन्नीगंज से फूलबाग़ जाना था -लंबा रास्ता .
टेम्पोवाला चल्ला-चिल्ला कर आवाज़ लगा रहा है
बैठ गई मैं भी .ज़रा देर में भर गया .चार सवारियाँ इधर ,चार उधर ,दो आगे ड्राइवर की साइड में -ठूँस-ठाँस कर सब को भर दिया उसने.
चलो थोड़ी देर की बात है!
टेम्पोवाले ने स्टार्ट किया और रिकार्ड ऑन कर दिया .फ़ुल वाल्यूम !
  कान झनझना गए .साथ में जो महिला बैठी थीं स्कूल जा रही थीं ।उन्होने कान पर हाथ रख लिये .
सब चुप हैं कोई नहीं बोल रहा .एक तो खड़खड़ाता पुराना टेम्पो ,ऊपर से कानपुर की सड़कें .नगर-निगम की मनमानी की मारी ,चार दिन सुधरती तो आठ दिन टूट-बिखरतीं .केबिलवाले ,जल-मल वाले ,शादी ब्याह वगैरा के तंबू-शंबूवाले सब की मन-चाही तोड़फोड़ झेलतीं , उछाल-उछाल कर आकाश-पाताल की सैर करातीं अपने और साथ में  सवारी के कल-पुर्ज़े भी डुलाते-बजाते  हमेशा से ऐसी ही रही हैं क्या ?.ऊपर से चीख़ती हुई गाने की आवाज और रास्ते के हाहकारी  चीख़-पुकार तो हैं ही ..
थोड़ी देर इंतज़ार किया कि शायद कोई कहे, फिर मैंने कहा ,'इससे कहें या तो वाल्यूम कम करे नहीं तो बंद कर दे ।'
वे बोलीं ,'कोई फ़ायदा नहीं , वह नहीं सुनेगा.ये.सब ऐसे ई करते हैं .हमी क्यों बोलें?'
सवारियाँ चिल्ला-चिल्ला कर बातें कर रही हैं .
'परेशानी तो सभी को हो रही है .चलो हमीं कहते है . '
' ना,ना .बिलकुल नहीं .कोई हमारी तरफ से नहीं बोलेगा, बल्कि सब मज़ा लेंगे कि बड़ा बनती हैं अपने आप को !'
'आप तो रोज़ ऐसे ही जाती होंगी ?सिर भन्ना जाता होगा ?'
'क्या करें ? जाना पड़ता है .हमारे यहाँ की आधी टीचर्स दूर से आती हैं.सब ऐसे ही शोर सुनती हुई आती हैं .कभी कभी तो ये लोग दूसरे के हार्न की आवाज़ भी नहीं सुनते । कल ही एक्सीडेंट होते होते बचा .'
'फिर भी कोई मना नहीं करता ?'
'कोई कहे तो बंद तो होता नहीं ऊपर से और मज़ाक बन जाता है .इसलिए
सब चुप रह जाते हैं , ज़रा देर की  बात है ।कान पड़ी बात भी सुनाई नहीं देती क्या करें ?मजबूरी है .'
हाँ, जब सब यही करते हैं तो अच्छा हो या बुरा .सही हो या गलत. वही करना है ।वही होता रहेगा सदा सदा को .
पीछे- पीछे खुसुर-पुसुर होती है ,आपस में दूसरों की शिकायतें करते हैं,पर सामने कोई नहीं कुछ कहता ।सब को परेशानी है ।लेकिन हम क्या करें ,सब ऐसे ही करते हैं ।
उथल-पुथल मचती रही मन में .मैं कहूँ और वह टका सा जवाब दे दे तो ?कोई बोलेगा नहीं .मेरे ऊपर तरस खाते सब सहनशील, भले  बने बैठे रहेंगे .
रहा नहीं जा रहा .देखी जायगी जो होयगा !
ड्राइवर मेरे पीछे था .मैं ज़रा मुड़ी ,'भइया ,ज़रा ये गाने का वाल्यूम थोड़ा कर कर देंगे ?'
उसने घूम कर देखा .सब मुझे ही देख रहे हैं .मैं सहज उसकी ओर देख रही हूँ.
'हाँ ,हाँ ,लीजिए!. चलो बंद ही कर देते हैं थोड़ी देर को .कुछ खराबी आ गई सो धीमा नहीं होता न! '
हे भगवान ,चैन की साँस ली मैंने !
सब ऐसे ही क्यों करते है ?
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बुधवार, 9 जून 2010

कौल-फ़ेल का इत्मीनान

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पत्रकारिता का कोर्स किया था तो पढ़ा था -कुत्ता आदमी के काटे तो खबर नहीं बनती ,हाँ आदमी अगर कुत्ते के काट खाये तो फ़ौरन खबर बन जाती है ।तब बड़ी हँसी आई थी ,पर सत्य फिक्शन से अधिक विचित्र होता है (यही कारण है कि लोग सच पर विश्वास नहीं कर पाते और झूठ पर आसानी से कर लेते हैं ।)
एक समाचार पढ़ा था - अमेरिका के विक्टोरया में आदमी ने कुत्ते के काट खाया ।
हुआ यह कि पुलिस ने अपने रुटीन वेहिकल चेकिंग करते समय उसे रुकने का इशारा किया ।वह नहीं रुका। चलता चला गया लगा । पुलिस ने पीछा किया तो उसने भागने की कोशिश की ।पेगो ,पुलिस ने 3 वर्ष का जर्मन शेपर्ड कुत्ता पीछे लगा दिया ।
आदमी के पीछे कुत्ता लगाया ये कहाँ की इन्सानियत हुई । उसने बचने की पूरी कोशिश की ।कुत्ते के सिर पर वार किया ,उसका गला दबाया और अपने दाँतों से कुत्ते को काट खाया ,आफिसर माइकल आडे आ गया तो उससे भी लोहा लिया उसके भी चोटें आईं ।आदमी का नाम सार्वजनिक नहीं किया गया क्यों बेचारे आदमी को शर्मिन्दा करें ।
अब पुलिस की मानवीयता देखिये ।उसे खतरनाक ड्राइविंग ,मादक पदार्थ रखने और ड्यूटी पर पुलिस आफिसर से मारपीट करने का अपराधी करार दिया ।कुत्ता भी ड्यूटी पर था ।पर उसे चोट पहुँचाने के लिये मुकद्दमा नहीं चलायेंगे ।कारण -कानूनन कुत्ता शपथ ग्रहीत पुलिस आफ़सर नहीं है ।अब यह बात अलग है पुलिस डाग हैंडलर्स संघ कानून को ही बदल डालना चाहता है उन्हें अपने कुत्ते अधिक महत्वपूर्ण लगते हैं ।उच्च प्रशिक्षण प्राप्त हैं और पुलिस विभाग के बहुत मूल्यवान सदस्य हैं ।कुत्ता प्रशिक्षित है आदमी कुशिक्षित ।
असलियत यह है कि आदमी अपना काम कर रहा है, कुत्ता अपना ।आदमी की जात कभी समान नहीं सोचती ,न इनका व्यवहार एकसा होता है ।एक से एक निराले ।देखिये कुछ चोर हैं कुछ चौकीदार ।जानवर फिर भी एक सा सोचते एक सा करते हैं ।आदमी कब क्या करेगा कुछ ठिकाना नहीं । उसके कौल-फ़ेल का कोई इत्मीनान नहीं ।जानवरों को सिखा-पढ़ाकर आदमी के उपयुक्त बनाया जा सकता है ,पर पढ़ा-लिखा कर आदमी को जानवर के अनुसार नहीं ढाल सकते । प्रशिक्षित कुत्ता आदमी से ज्यादा कुशल हो जाता है -कई कामों में ,जब कि पढ़-लिख कर आदमी न इधर का रहता है न उधर का ।
और देखिये न कुत्ते का महत्व तो प्राचीन काल से रहा है । युठिष्ठिर के साथ एक कुत्ता स्वर्ग जा सका ,न बाकी के पाण्डव ,न द्रौपदी ।
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सोचिये मत.

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जब पढती थी तब पढ़ाया गया था 'अपारे काव्य संसारे कविरैव प्रजापतिः .
अक्सर यह होता है ,छात्र-जीवन में जो पढ़ाया जाता है ,उसे हम पढ़ लेते हैं ।उसमें कितना सच है उस समय समझ में नहीं आता .पर विज्ञों द्वारा एक बात कही गई है -सोच कर चुप हो जाते हैं ,कि उसके पीछे गहरे अनुभवों की लंबी परंपरा होगी ।सब का मैं नहीं कह सकती क्योंकि कुछ अति तीव्र-बुद्धि लोग उसका सच तुरंत आत्मसात् कर लेते होंगे , पर तब मेरे गले से पूरा नहीं उतर पाता था ।
लेकिन अब मैं अपने चारों ओर वही सब घटता देख कर समझ गई हूँ ।
हाँ तो बात थी ,कवि निरंकुश होता है ।कवि से उनका मतलब रचनाकार से होता था ,अर्थात् लेखक !इधर कहानियों ,उपन्यासों के लेखक ... फिर सिनेमा की कहानियाँ और एक से एक टीवी सीरियल!।जो वहाँ देखा ,जीवन में कहीं होता नज़र नहीं आया ।घर में किसी लड़की को पेड़ की डाल के सहारे विरह के गीत गाते मैं न पा सकी कॉलेज का ऐसा रंगीन वातारण छात्र-छात्राओं का निरंकुश व्यवहार , कहीं डिसिप्लिन नहीं ,गाँवों की वेष-भूषा और जवान लड़कियों का खेतों में नाचना गाना । प्रेम-गीतों के दृष्यीकरण में खूब हरे-भरे पार्क में ,दोनों का प्रेमालाप एक ही दृष्य में , कपड़े बदल-बदल कर एक दूसरे के पीछे दौड़ना ,नाचना ,लिपटना-चिपटना ,और उस समय वहाँ कोई आता नहीं ,जब कि हिन्दुस्तान में ऐसा हो तो लोगों की भीड़ इकट्ठी हो जाय .पर लेखक यदि चाहे तो क्या नहीं कर सकता ?जो कहीं न दिखाई दे वह देख लीजिये हिन्दी के सीरियल्स और मूवीज में. एक से एक चमत्कार चमत्कार !एक से एक नई उद्भावनायें -संभव-असंभव सब ।
सोचिये मत नहीं तो सिर घूम जायेगा ,सिर्फ़ आँखें फाड़ कर देखिये और दाद दीजिये रचनाकार की पहुँच की !
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नहीं, नहीं, नहीं !

हेमा -
वह मेरी छात्रा रही थी आज से आठ वर्ष पहले - खूब लंबी-सी ,साँवली-सलोनी हेमा .
उसे देख कर मुझे लगता मैं पढ़ा रही हूँ ,और यह अपने् में मगन ,जैसे मन ही मन हँसे जा रही हो .
'क्यों ,क्या बात है हेमा ?'
'कुछ नहीं दीदी,' खड़े हो कर वह बोलती .
एक बार तो बेंच पर खड़ा कर दिया था इसीलिए. पढ़ने में साधारण थी .और कोई बुराई नहीं थी बस डाँटो तो भी लगता था हँस रही है .
फिर सुना हेमा की शादी हो गई.
 ससुरालवाले पढ़ाना नहीं चाहते.लड़कियों के साथ अक्सर ही ऐसा होता है

 किसी ने बताया था एक बच्चे की मां बन गई कच्ची-सी हेमा.

स्कूल में दिखी थी एक बार .पीली-सी ,दुबली-सी .पर चेहरे पर वही हँसी थी.

मेरे सामने आते शर्मा रही थी .मैंने ही आवाज़ दे कर बुलाया था .

'हेमा,ससुराल में भी ऐसे ही हँसती हो न .'

'नहीं दीदी ,हर समय दाँत खोले रखना किसी को अच्छा नहीं लगता .

मैं धक् से रह गई थी.

हँसने पर सबसे पहले मैंने ही टोका था उसे .
हमारे यहाँ एक शिक्षिका की नियुक्ति हुई ,हेमा उनकी संबंधी थी .
समाचार मिलते रहे.
आदमी ने पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी .पिता की दुकान पर बैठने लगा .फिर यार-दोस्तो में रमने की आदत पड़ गई.

घर में हेमा की कदर घट गई थी , ऊपर से दो बच्चे .

वह कुछ कहती तो चिल्लाता ,'तुझसे क्या मतलब सुसरी ,खाने-पहनने के लिए मिलता है और क्या चाहिए .हमारे ऊपर सासन करना चाहे तो जूता लगा देंगे .'

एक विधवा जिठानी हमेशा सिर पर सवार रहती थी .
आदमी की आदतें  बिगड़ी हुई थीं.
 एक बार एक काली-सी औरत को घर भी ले आया था .पड़ोसियों से पता लगा था.बहुत दिनों से उससे संबंध था ,

बच्चों के लिए वह जुम्मेदार थी .जिसके अत्यचार सहकर उसने बच्चों को धारण किया ,क्या उसके मन ने उसे कभी सहजरूप में स्वीकारा होगा !और जब तक वह जी अपने बच्चों को सामने-सामने दुरदुराया जाता देख उसे कैसा लगता होगा - मैं सोच कर विचलित हो जाती .
पर सबकी निगाहों में हेमा दोषी है ,जिस आदमी ने कभी उसके साथ न्याय नहीं किया वह निर्दोष !

एक बार वह मायके भाग आई थी बिना किसी को बताए .

घर पर माँ-बाप ने मुश्किल कर दी .

मैने कहा था ,'मत भेजो इसे वहां .पढ़ने का खर्च मैं दूंगी .पढ़ा कर नौकरी करा दो ।'

हेमा ने मेरे पांव पकड़ लिए थे .'दीदी,मुझे वहां मत भेजो .'
उसकी माँ आड़े आ गईँ -
'आप समझती क्यों नहीं ?हमें और भी लड़कियां ब्याहनी हैं .'

फिर इसका आदमी छोड़ेगा इसे .जरा में कह दिया ये बच्चे ही मेरे नहीं हैं तो हम क्या कर लेंगे उसका ?इतना कलंक लेकर कहां जी पाएगी यह !'

माँ रो रही थी .इससे अच्छा था मर जाती झंझट खत्म होता .
फिर सुना वह अपने रिश्तेदारों के साथ आय़ा था औऱ सड़क पर घसीटा था हेमा को .

उसके बाप को धमका गया तुम कुछ भी बोले तो हवालात में बंद करवा दूंगा .

फिर चार बरस हेमा मायके नहीं आई.

जिसे हँसने पर डांटती थी वह हेमा कितने साल बिलकुल नही हँसी होगी !

अब वह कभी नहीं हँसेगी . इस हँसी और रुदन से मुक्त हो गई वह .

मेरी आँखें क्यों भरी आ रही हैं ?मेरा उसका कोई संबंध नहीं था .कुछ साल मेरे क्लास में रही थी ह अपने हँसते चेहरे पर डाँट खाती .

बार-बार आंसू उमड़े आ रहे हैं .

मैं समझ रही हूं ,उन स्थितियों में जीना ,किसी के लिए संभव नहीं .

जो विद्रोह करता है वह जी लेता है ,जो नहीं कर पाता वह मरने पहले भी बार-बार मरता है .

जीवन भर कुढ़-कुढ़ कर रहने से अच्छा एक बार मर जाना या डट कर लड़ना .प्रकृति में सदा से यह होता आया है ,जो समर्थ है जीता है ,असमर्थ मिट जाता है ,चाहे वह स्वयं को मिटाले या दूसरे उसे मिटा दें .

क्वाँरी लड़की से माँ कहती है ,अपने घर जाकर अपना मन पूरा करना .पर अपना घर मिलता है क्या ?,कहीं कोई अधिकार होता है क्या ?

साथ की एक शिक्षिका ने कहा था 'सुसाइड करना कायरता है .'

इन्सान पागल हो जाए उससे अच्छा उस अभिशापमय जीवन से मुक्त हो जाना नहीं है क्या ?'

एक और अधपका व्यक्तित्व निर्ममता से तोड़ डाला गया .


उसे शुरू से ढाला गया था -सीधी बनो ,सुशील बनो ,सब कुछ सह लो ,किसी को जवाब मत दो .लड़की का धर्म है सब के अनुसार चलना .

हेमा के साथ जो हुआ,उसमें  कुसूर किसका ?
शुरू से कह- कह कर कि अपना मत सोचो ,अपनी इच्छा कुछ नहीं, दबा दिया था उसका मन .
पिर भी दोष उसका है ?

जिनने उसे मरने के लिए विवश किया वे निर्दोष हैं ?

वह बीमार नहीं थी ,उसका दिमाग़ खराब नहीं था .-हां बाद के दिनों में बड़ी हताश और थकी-हारी लगती थी .

वह कर्कशा नहीं थी ,होती तो दूसरों का जीना दूभर कर देती .,मां-बाप ने इतना निरीह बना कर इस क्रूर दुनियां के अयोग्य बना दिया था.
सबसे बड़ी जुम्मेदारी उस आदमी की जो माँ-बाप के पास से ले गय़ा था ,जिसमें अपनी कोई की सामर्थ्य नहीं थी ,बस अपने को उस पर थोपता चला गया .
वह उसे छोड़ गई क्या बुरा किया ?
यंत्रणा कितनी वीभत्स होती है .
सारी दुनिया को बहका सकती हूँ ,धोखा दे सकती हूँ अपने को भी, पर कलम से नहीं .उससे भेद नहीं चल पाता .
हाथ में कलम लेकर निर्भय हो जाती हूं सब-कुछ कहने के लिए .
एक दुर्निवार आकर्षण है जो मेरा मन इसे सौंप देता है ,अपने असली रूप में .

हथ में कलम लेकर कुछ सोचती नहीं बस लिखती हूं .वह चलती जाती है मैं चुप .

उसके जीवन पर पति का अधिकार रहा , उसका नहीं .सहते-सहते सीमा पार हो गई होगी मन ने विद्रोह किया होगा , तब उसे बता दिया गया होगा कि मुझसे बच कर जी नही सकतीं .

वह चली गई है ,चार दिन में सब ठीक हो जाएगा .रो-धो कर सब शान्त हो जाएँगे

आदमी दूसरा ब्याह कर लेगा ,बच्च रो-झींक कर चुप हो जाएँगे .

पर अपना ध्यान बार-बार उधर जाने से रोक नहीं पाती .

बात चाहे किसी की हो मेरा मन मुझे कटघरे में खड़ा कर बहस करने लगता है .

दारुण से दारुण वेदना सह कर भी आदमी थोड़ा और जी लेना चाहता है .

 अपने-आप को कोई मार लेता है -क्या आवेश में?

नहीं ऐसी लड़की आवेश में अपने को नहीं मार सकती .

इसके पीछे बड़ी लंबी विचारणा रही होगी ..पहले तो अपने न रहने की कल्पना कर वह रोई होगी .

अपने बच्चों का सोच-सोच कर व्याकुल हुई होगी .उनकी निरीह दशा पर कितनी अशान्ति झेली होगी उसने.

और रास्ते भी ढूँढे होंगे .

जब सब कुछ असहनीय हो उठा होगा ,कुछ न कर पाई होगी ,तब हार कर उसने यह आखिरी कदम उठाया होगा .

मन की पीर हो या तन की सहने की एक सीमा है .
ऐसे निर्णायक क्षण ,पुरुष के जीवन में आयें तो वह बौखला जाता है .क्रोध में या उन्मत्त हो ,चीख-पुकार मचाता है .अपना ग़ुबार निकाल लेता है .और हेमा ....कोई रास्ता नहीं उसके पास !

 सोच रही हूँ जीवन का अंत दुखमय क्यों  होता है -भीषण हा-हाकार ,रुदन से भऱपूर !कैसा जीवन है -प्रारंभ और अंत दोनों दुखमय और इसके बीच में क्या मिलता है -सुख,आनन्द ,संतोष ?
नहीं , कुछ नहीं,कुछ भी नहीं !
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