बुधवार, 29 दिसंबर 2010

स्त्री

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कल हमारे पड़ोसी शास्त्री जी के बहनोई आये थे .
बातों-बातों में बोले -
'हमारे साले शास्त्री जी स्त्री  के बिना बिलकुल नहीं रह  सकते.  समझो बिलकुल बेकार हो जाते हैं.तो  हमेशा साथ लिये घूमते हैं .'
'क्या कह रहे हो ?'
'सच कह रहा हूँ .'
'अच्छा.तुम्हीं से सुना ,और तो कोई नहीं कहता ?'
 'तुम ख़ुद देख लो ,कोई कहे चाहे न कहे .सच तो सच ही रहेगा '.
किसी की समझ में ही नहीं आ रहा था .
'बहस करने से कोई फ़ायदा नहीं .तुम्हीं देखो ''शास्त्री" की "स्त्री" निकाल दो तो क्या बचा?'
 "शा" .
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शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

घर और घाट

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मेरे साथ की एक प्रवक्ता खीझ कर कहा करती थीं ," साठ की हो जाऊं फिर किसी की नहीं सुनूँगी ...."

वह सोचती थीं साठ पार करते ही ,छूट मिल जाएगी !

कहती थीx ,"और रुके है थोड़े दिन .पार हो जाने दो साठ ,फिर तो जिसके साथ चाहें निश्शंक बोलेूँ . किसी से छिपा कर क्यों चौराहे पर खड़ी हो कर हँसूँगी, बोलूंगी ,

"अभी तो ज़रा सा किसी के साथ बैठ कर कुछ डिस्कस कर लिया तो लोगों की निगाह में तमाशा बन जाते हैं -ये कोई नहीं देखता कि हमारी उम्र क्या है , भावना क्या है . बस निगाहें तौलने लगती हैं ये क्या कर रही है,क्यों कर रही है !अपनी कुंठाएँ लाद देते हैं .अरे करूँगी क्या ,बात ही तो कर रही हूँ."

मैं खुद नहीं समझ पाती कि ऐसा क्यों होता है .

"एक उम्र के बाद तो कम से कम इस सबसे मुक्त कर दो ,एक व्यक्ति के रूप में- अपनी रुचियों के अनुसार निश्चिन्त हो कर जी लेने दो,"

अक्सर तो उसे चिढ़ा कर उकसाने के लिए के लिए हम लोग छेड़ देते पर उसके कहने में तथ्य था .

हर जगह याद दिलाते रहा जाय -तुम नारी हो ,तुम्हें नारी की तरह रहना चाहिए. .

ग्राम्य शब्दों में कहें तो ,"अरे ,औरत हो औरत,की तरह रहो !"

हमेशा याद दिलाते रहा जाएगा तुम औरत हो, तुमसे जो अपेक्षित है वही करो.और यह हम बताएंगे कि क्या करना कैसे रहना चाहिए .

स्वाभाविक रूप में सहज व्यवहार स्वीकार्य क्यों नहीं ? हमेशा दूसरों के हिसाब से चलें ,उनकी मानते रहें तो ठीक ! नहीं तो ,स्वेच्छाचारी ,निरंकुश, उच्छृंखल ,स्वच्छंद जैसे शब्द गालियां बना उछाले जाएंगे उस पर ! ऊपर से धमकी -न घर की रहोगी न घाट की !(सचमुच घर और घाट दोनों पर एकाधिकार है जिसका वह चाहे जो करे -कौन टोक सकता है उसे!)

जो स्वाभाविक है वही आचरण तो कोई करेगा याद दिलाने की ज़रूरत क्या है ?क्या किसी से कहा जाता है ,माँ हो माँ की तरह रहो ,या बहन हो बहन की तरह रहो .वह तो अपने आप होता जाता है .

इसी का दूसरा पहलू देखिये - ,पति हो पति की रह रहो (पत्नी पर शासन करते हुए)

,या आदमी की तरह (हमेशा तन कर सारे अधिकार समेट कर).

व्यक्ति का व्यक्ति से जो स्वाभाविक संबंध होता है-सहज, उदार .वह स्वीकार्य क्यों नहीं.एक महिला के लिए अपने आप में एक व्यक्ति होने की गरिमा,क्यों नकार दी जाती है ?

एक व्यक्ति के रूप में रहने का अवसर कभी क्यों नहीं मिले -अपने सारे दायित्व पूरे कर चुकने के बाद साठ पार - सत्तर पार कर के भी नहीं . स्त्री है सिर्फ़ इसलिए तमाम वर्जनाओं के साथ जीना उसकी नियति !इस उम्र तक जो अच्छी बनी रही तो अब कोई उसे बिगाड़ नहीं सकता ,और अगर बिगड़ी हुई है तो कोई उपाय उसे सुधार नहीं सकता- यही सोच कर निश्चिन्त क्यों नहीं रह सकते लोग !

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