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अपने देवताओं के प्रति हमारी आस्थाएँ कितनी दृढ़ हैं कितना श्रद्धा-भाव है !
विवाहादि मंगल-कार्यों में निमंत्रण-पत्रों पर विघ्नहर्ता गणपति की हल्दी-कुंकुंम से सज्जित आकृति चिपका कर और कार्य पूर्ण होने की प्रार्थना के साथ रीति निभा दी .और काम पूरा होते ही ,गया सब कचरे में .
निमंत्रण पत्र तो खास समय की बात है ,हर साल कैलेन्डरों में भगवान का कोई रूप मनोहर रंग-रूप दे छपवाते हैं . टँगा रहते हैं साल भर दीवार पर और फिर पुराना होते ही उतार कर फेंक दिया- साल दर साल यही .बीड़ी का बंडल ,पान-मसाला ,दियासलाई ,जरूरत-बेज़रूरत की सारी चीज़ों पर उनके रूप और नाम आँक दिये .उन के नाम से बेचने में दोहरा फ़ायदा ! और बाद में सब की सब बेकार की चीज़ हो कर रह जाती है - नालियों में ,कूड़े के ढेरं पर गंदगी में और पाँवों के नीचे जूते-चप्पलों से कुचली जाती हुई !
और तो और गले में टाँग लेते है पेन्डेन्ट में ढाल कर ! क्या करें बेचारे . भगवान हैं न ,श्रद्धा और प्रेम के भूखे - पसीने से नहाते के शरीर-गंध झेलते ,पाउडर चाटते लटकते झूलते-डोलते रहते हैं.
और भी - गलियों में ,सड़कों के किनारे ,के किसी चबूतरे या आले में स्थापित देव- प्रतिमाएँ !
भक्त आए पूज कर प्रार्थना कर गए !प्रसाद धर गए, दूध चढ़ा गए -जो बह-बह कर नालियों में जा रहा है और कुत्ते चाट रहे हैं .कुछ लोग कुछ सिक्के भी चढ़ा जाते है ,जिन्हें सड़क चलते लड़के उठा कर अपने व्यसन पूरे करते हैं.
देखते सब हैं पर क्या फ़र्क पड़ता है किसी को ?जब तक काम तब तक मान !
भक्ति(स्वार्थ-प्रेरित) के आवेग का उतार, श्रद्धा का नकारापन ,पूज्यभाव की प्रतिक्रिया क्या कहें इसे ?
या फिर उदासीनता की पराकाष्ठा !
अजी वाह..... कमाल कर दिया आपने मेरे मन की भावनाओ को व्यक्त कर दिया|
जवाब देंहटाएंहम्म....एकदम सही कहा आपने...
जवाब देंहटाएंइस बात के कई कारण हो सकते हैं.....मगर जो सबसे अच्छा aur sateek मुझे लगता है...वो यही..कि हम भगवान् को 'अपना' मानकर नहीं पूजते हैं...''वे भगवान हैं..सर्वश्रेष्ट हैं..'' वाला भाव सदा हावी रहता है....जो दरअसल..उनको पराया कर देता है...:(
.अगर उन्हें अपने जैसा ही....या घर का ही सदस्य समझ लिया जाए...और उसी तरह से treat किया जाए जैसे हम अपने को या किसी और को करेंगे..तब स्थिति बदल जाएगी :)
...वृन्दावन गयी जब तब पहली बार जाना..कि कैसे भगवान श्री कृष्ण को लोग बेटे जैसा ...एक शिशु के जैसा साज संभालकर रखते हैं.......उन्हें भी भूख लगती है..गर्मी लगती है..वे भी सोते हैं और देर से उठते हैं सुबह...आदि इत्यादि....क्यूंकि वे विग्रह को विग्रह नहीं बल्कि एक सजीव कृष्ण का दर्जा देते हैं....
जब ऐसा अनुपम भाव मन में हो तो कोई भला चाहेगा कि उसके किसी अपने का नाम या चित्र राह चलते धूल में पड़ा हुआ लोगों के पैरों तले रौंदा जा रहा हो....?
ज़रा यही बात किसी के माता पिता से जोड़ कर कह दें तो देखिये फिर कैसे सामने वाला बन्दा क्रोध से फुफकार उठेगा....मगर जगतपिता के लिए कोई क्रोध कोई चिंता नहीं...क्यूंकि ''profit' होना चाहिए...चीज़ बिकनी चाहिए...
(यहाँ मुझे आपका शुक्रिया अदा करना चाहिए...kyunकि मैंने हमेशा से सोचा था..अपनी लैब या अस्पताल का नाम ''बिहारी जी' पर ही रखूंगी.....अब नहीं रखूंगी....:) )
वो सड़क के चौराहों पर स्थापित मूर्तियों कि व्यथा बहुत बहुत सच्ची है..........मैंने भी कितनी दफे ऐसे मंदिरों में हाथ जोड़े होंगे..शीश नवाया होगा.....मगर उससे अधिक या कहूं..अपने स्वार्थ से आगे नहीं सोच पायी.....आज आपके शब्द पढ़कर लगा कि सच ही तो है...कितना गलत है ये....
जितना संवेदनशील विषय उतनी ही रोचकता से आपने लिखा भी है...''भगवान् बेचारे क्या करें भाव के भूखें हैं...सो लटके रहते हैं लोकेट बनकर..''..ये वाली बात पर हंसी भी आई थोड़ी सी..और बात तो खैर सही है ही...बहुत तीखा कटाक्ष...
आभार सार्थक लेखन के लिए....:)
bahut pyaara aur jagruk lekh
। आज फिर से ये लेख पढ़ा प्रतिभा जी...नया जो मैंने पाया....वो ये...कि मैंने कुछ ज़्यादा ही पवित्र कारण यहाँ लिख दिया था....''अपनेपन '' वाला....शायद आज के समय में लोग इतने ज़्यादा मतलबपरस्त और स्वार्थी हैं...कि बस 'चीज़' बिकनी चाहिए......''कैसे'' ...उसकी किसी को चिंता करने का समय ही नहीं है....भगवन का नाम है तो वही सही..किसी फ़िल्मी कलाकार का नाम है तो वही सर माथे......पैसा पैसा और बस पैसा........सब निन्यानबे के फेर में पड़ें हैं....
जवाब देंहटाएंऔर लोग भी तो कितने अजीब हैं....उसका विरोध भी नहीं करते....:( (अपने को भी शामिल करके कह रही हूँ.... ) ...शायद सदा की तरह हमें किसी ज़िम्मेदारी लेने वाले का इंतज़ार होता है.......हर वेलेंटाईन डे पर तमामतर तथाकथित धर्म के ठेकेदार संस्कारों का झंडा लेकर निकल पड़ते हैं .... मगर मुझे स्मरण नहीं होता..कभी ये भगवानजी वाली photos का भी विरोध व्यापक पैमाने पर हुआ हो.....जागरूक पत्रकारों के आलेख अवश्य पढ़ती रही हूँ..........मगर उससे कितने लोग अपनों नैतिक जिम्मेदारियां समझेंगे..??और जिन्हें ज़रुरत हैं...वे अधिकांशत: अखबार से दूर रहते होंगे....
खैर....
क्षमा कीजियेगा....पर शायद अपने मन में कहीं इस काम को 'न कर पाने '' की कुंठा ने शब्दों को उग्र कर दिया.......:(
फिर से ये रचना पढ़ना उतना ही सुखद रहा..इतना पहली दफ़ा महसूस हुआ था.....
आभार !!