स्वप्नो का क्षरण .(चर्चा के लिये )
आज जिसे मध्य प्रदेश कहते हैं ,पहले यह क्षेत्र मध्य- भारत कहलाता था .धरती की अंतराग्नि की फूत्कार से रचित रमणीय पठारी भूमि ! मालवा का क्षेत्र उसी का एक भाग है - भारत का हृदय स्थल ,सपनों के समान ही ऊबड़-खाबड़,जिसे सींचते रहे जीवनदायी पयस्विनियों के सरस प्रवाह !.उर्वर काली माटी , मां का काजल-पुँछा स्नेहांचल हो जैसे . लोगों में प्रकृति के प्रति विशेष लगाव यहाँ की विशेषता है .
प्रायः ही वन-भोजन के लिये वनों में पहुँच जाना ,वहीं का ईंधन बटोर ,दालबाटी (चूरमा भी) बनाना और चारों ओर के सघन ढाक-वनों से प्राप्त पर्णों के दोने-पत्तल बना कर जीमना . पानी की कोई कमी नहीं . आये दिन कोई आयोजन .कभी मंगलनाथ की यात्रा ,कभी शरद्-पूर्णिमा का मेला कभी घट्या की जातरा .वनों में सीताफल (शरीफ़ा) और घुँघचियों के ढेर .- बड़े होने तक यहीं रही-बढ़ी. शिक्षा-दीक्षा भी संदीपनि गुरु के आश्रम वाले उज्जैन नगर में .
अपने दायित्व पूरे होने तक फिर-फिर इस रमणीयता का आनन्द लूँ ,कुछ समय यहां निवास कर नई ऊर्जा सँजो लूँ ,यही चाहा था.कोई बड़ी कामना नहीं ! जीवन के उत्तर काल में ऐसे ही स्वच्छ-स्वस्थ जल-वायु वाले प्राकृतिक परिवेश में बहुत सीधा-सरल जीवन हो. पर समय के प्रवाह में परिवर्तन की गति बहुत तेज़ हो गई.जैसे सब-कुछ भागा जा रहा हो. आँखों के सपने भी कहाँ टिके पाते !
अब कुछ भी वैसा नहीं .जिन जंगलों में टेसू के फूल डाल-डाल अंगार दहकाते थे ,काट डाले गये. नदियों की निर्मल जल-रागिनी ,भीषण प्रदूषण की भेंट चढ़ गई.अमरकंटक की वह दिव्य छटा श्री-हीन हो चुकी है .
वही हाल उत्तरी भारत का - सरिताओं के प्रवाह बाधित ,दूषित. श्रीनगर की डल झील दुर्गंध और कीचड़ से भरी ,नैनी झील पॉलिथीन के थैलों से पटी ,सब कुछ सूखता जा रहा ..पर्वतों की रानी मसूरी पर हरियाली के वस्त्र नाम-मात्र को रह गये .हिमगिरि के शृंखलाबद्ध रूप से किरीट सजे शीर्ष के ,गंगा-यमुना-सिंधु से युक्त संपूर्ण उत्तरी भूमि के बहुत गुण-गान पुरातन काल से कानों में गूँजते रहे .पर आज देकती हूँ उन सब पर दूषण की घनी छायायें घिरी है . कभी सोचा नहीं था जीवन-पद्धति इतनी बदल जायेगी .
गंगा-यमुना को नभ-पथ का दिव्य जल-प्रदान करती हिमानियाँ लगातार सिमट रही हैं, धरती पर आते ही उन्हें बाँधने का ,अवशोषित करने का ,क्रम शुरू हो जाता है. महाभारत काल की अनीतियाँ सह न पा सरस्वती विलुप्त हुईं ,आज मानव नाम-धारियों की दुर्दान्त तृष्णा सभी सरिताओं में विष घोल रही है .
बिना गंगा-यमुना के (सरस्वती तो
ओझल हैं ही ),शिप्रा -नर्मदा ,गोदावरी कावेरी के ,भारत ,भारत रह पायेगा क्या?वनों-पर्वतों का उजड़ता वैभव आगे जीवन पर क्या प्रभाव डालेगा,सोचना भी मुश्किल लगता है .
जो सपना बीस बरस लगातार देखती रही थी ,इधऱ पाँच दशाब्दियों से निरंतर उसका क्षरण देख रही हूँ , वह सब काल की रेत में मृगतृष्णा बन कर रह जायेगा क्या ?
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(परिचर्चा के लिए)
(परिचर्चा के लिए)
"अरेंज्ड मैरिज और लव मैरिज " क्या सही है !
मानव-स्वभाव इतना भिन्नतापूर्ण है और जीवन इतनी कंप्लेक्स चीज़ है कि किसी सही-ग़लत का निर्णय हर परिस्थिति, में हर व्यक्ति पर नहीं थोपा जा सकता .एक जगह जो कुछ ठीक लगता है दूसरी परिस्थिति में वह गलत सिद्ध हो सकता है .
विवाह एक सामाजिक संस्था है जोमानव वृत्तियों के तोषीकरण ,नियमन एवं ऊर्ध्वीकरण के साथ, सृष्टि का क्रम चलाने और उसे व्यवस्थित रखने के लिये बनाई गई है .विवाह स्त्री-पुरुष का एक जोड़ा संयोजित करता है- परिवार रचने के लिये जिसमें आजीवन दायित्व निभाने की सहमति, पारिवारिक जीवन के साथ सामाजिक मर्यादाओं की रक्षा ,परंपराओं की स्वीकृति और सामाजिक संबंधों के निर्वहन की अपेक्षा की जाती है.(प्रेम-विवाह में इस सब बातों में ढील पड़ जाती है ).समाज के बीच परिवार में जन्म ले कर हमने जो सुरक्षा और सुविधाएँ पाई उनका ऋण चुकाना प्रत्येक व्यक्ति का दायित्व बनता है .जिससे निरंतरता बनी रहे .इसी की पूर्ति के लिये गृहस्थ जीवन की कल्पना की गई .विवाह उसी गृहस्थ-जीवन का प्रारंभ है .
पूर्वकाल में हमारे यहाँ विवाहों की कई कोटियाँ थीं ,पर अब सामान्यतः दो प्रकार के देखे जाते हैं.
1.परिवारों द्वारा निश्चित किया गया .
2. प्रेम से प्रेरित हो कर किया गया .
पहले प्रकार मैं परिवारिक संस्कारों की अनुरूपता के आधार पर पहले विवाह होता है फिर उसके बाद पति-पत्नी में ताल-मेल बैठने का क्रम शुरू होता है. परस्पर सहानुभूति ,विश्वास और प्रेम का विकास क्रमशः होता है
प्रेम-विवाह में ताल-मेल (कितना है वही दोनों जाने ) पहले बैठ जाता है - दुनियादारी से निरपेक्ष आपस की समझ एक दूसरे को अनुभव कर बनती है विवाह का संस्कार का नंबर बाद में आता है .
सामान्यतया जो देखने में आता है - प्रेम-विवाह में पारिवारिकता और सामाजिकता के स्थान पर वैयक्तिकता हावी रहती है, ,वह अपनेी दुनिया में ही रहना चाहता और सामाजिक मर्यादाओं को महत्व नहीं देना चाहता. प्रारंभ के आवेग में सब सुन्दर ,मोहक लगता है लेकिन जब सम पर आकर जीवन सहज गति से चलने लगता है ,आगे के (पारिवारिक तथा अन्य)दायित्वों के निर्वहन में कोई बाधा पड़ने पर या परस्पर किसी गलतफ़हमी अथवा अन्य कारण से गतिरोध की स्थिति उत्पन्न होने पर मुश्किल हो जाती है .
जब कि सामान्य विवाह में कोई गतिरोध आने पर दोनों के परिवार सहारा देते हैं .उसे दूर करने में सक्रिय भूमिका निभाते हैं. इस आधार और सहयोग से विषम परिस्थितियाँ भी सँभल जाती हैं .
विवाह कैसा भी हो दोनो ओर के परिवारजनों की स्वीकृति और सहयोग बना रहे तो सोने में सुहागा !
यहाँ अमेरिका में तो सभी प्रेम-विवाह करते हैं .तलाक भी धड़ल्ले से होते हैं.इन स्थितियों में बचपन कितना अरक्षित अनुभव करता है, आघात झेलता है ,कैसा कुंठित हो जाता है मैंने देखा है.किशोरों में कैसी-कैसी ,गलत आदतें विकसित होने लगती हैं जो व्यक्तगत जीवन और समाज के लिये घातक होती हैं.परिवार का स्नेहमय संरक्षण और संस्कार मिलते रहने पर इस प्रकार की विकृतियाँ नहीं आती.
विवाह के लिये जिस प्रतिबद्धता की आवश्यकता है ,उसमें खरा उतरना सबसे पहली बात है .परिवार ,समाज का दबाव भी कारगर होता है 'छूट पाते ही मानव-मन अपने को नियंत्रित कर ले यह हमेशा संभव नहीं होता ,थोड़ा दबाव चाहिये ही ,अपने से बड़ों का ,जिन पर विश्वास हो .एक सहारा हमेशा के लिये बना रहे तो बहुत अच्छा है.
पारस्परिक विश्वास और सौमनस्य पूर्वक कर्तव्यों को निभाने में ही गृहस्थ-जीवन की सफलता और चारुता निहित है . चाहे प्रेम-विवाह हो या तय किया गया इसी में उसकी गरिमा है.
- प्रतिभा सक्सेना...