गुरुवार, 25 नवंबर 2010

दोनों एक साथ

*



उस दिन पड़ोसवाली वंदना आई बोली ,' समझ में नहीं आता ,सुबह जल्दी-जल्दी के कामों में कैसे इनसे सहयोग लूँ ?'

'क्यों .मना करते हैं ?'

'मना नहीं करते ,कर भी देते हैं जब कहो तब ..पर मैं चाहती हूँ एक जिम्मेदारी ले लें कि में निश्चिन्त हो जाऊँ .हर समय हड़बड़ाई सी हर तरफ़ न दौड़ना पड़े '.

'उनके सुपुर्द कर दो ये तुम्हें करना है ,'

'हाँ, किया था मैं.किचन सम्हालूं और वे बच्चों के जूते-मोज़े ठीक कर दें ,उनकी बॉटल भर दें ,'

'तो ?'

'तो क्या ,ध्यान नहीं रहता. पेपर हाथ में ले लिया तो उसी में डूब जाते हैं,न्यूज़ सुनने लगे तो उसी के हो गये.फिर किसी से मतलब नहीं . काम करते-करते मैं ध्यान दिलाती रहूँ '.

'ये तो मैंने भी देखा है इन लोगों का दिमाग एक बार में एक ही तरफ़ चलता है.वन वे ट्रैफ़िक .'

'और किचन से चिल्लाऊँ तो वहीं से क्या-क्या करते रहेंगे . जाकर कहूँ तब पूछेंगे- क्या ?'

रोज़-रोज़ की वही कहानी .

सच्ची बड़ी मुश्किल है

किचन में काम करते पर कहाँ-कहाँ ध्यान रखे और , धीरे से कोई सुनता नहीं .

रोज़-रोज़ की चीख-पुकार से तंग आकर उसने एक उपाय निकाला

एक बोर्ड बना कर टाँग दिया - रोज़ शाम को लिख दिया जाय कि सुबह कितने बजे इन्हें क्या करना है . क्या करना है और वे अपने आप देख लेंगे .

बता भी दिया फ़ौरन तैयार हो गए .

टँग गया बोर्ड -

सुबह ,सात बजे देखना है बच्चे ब्रश कर रहे हैं ,

फिर आदि साढ़ेसात कर नाश्ते के लिए तैयार ,

पौने आठ से पहले स्कूल के लिए निकल जाना है .

निश्चिन्त हो कर वंदना नाश्ता लंचबॉक्स तैयार करती रहेगी बीच-बीच में दौड़ना -चीखना नहीं पड़ेगा .

*

सुबह का काम शुरू .

लंच बाक्स और नाश्ता तैयार कर रही है वंदना .

कहीं कोई आहट नहीं .

सुबह सात पैंतीस ,,,और पाँच मिनट,

तवा उतार कर गई .

अरे, सात सैंतीस हो गए ,तुम यहाँ निश्चिंत बैठे हो ....'

'तो क्या करूँ ?'

'क्यों बोर्ड पर लिखा है न !'

क्या लिख दिया बोर्ड पर, कहाँ?

बताया तो था ,इधर बेडरूम के बाहरवाली गैलरी में सामने. तुमने पढ़ा नहीं ..?'

'तुम बता दो हम उधर गए ही नही .'

बता दिया चलो ,दो-एक दिन यही सही ,

इतवार पड़ गया .सोमवार को फिर सात चालीस हो रहे थे ,ले जा कर बोर्ड सामने किया, 'हम क्या करें इसका ?'

'पढो '.

'शेव कर रहे हैं. चश्मा कहाँ लगा है तुम बता दो .'

बताया .

'अरे हाँ, अभी जा रहे हैं जरा टाइम और बता दो . और सुनो यहाँ तक आई ही हो तो हम तौलिया बेडरूम में भूल आये हैं ,ज़रा पकड़ाती जाना .'

'उफ़्फ़!

एक बार भी जो सुबह उठ कर पढ़ लें!एक बार घड़ी ले जा कर सामने कर दी '.

कहने लगे ,'घड़ी को क्या हुआ?'

'टाइम देखो.'

'हाँ हाँ ,देख लिया ,अरे सात बीस हो गये!अरे , पहले क्यों नहीं बताया . इत्ती देर में हम क्या-क्या कर लेंगे अभी तो हमने ब्रश भी नहीं किया !

'जरा तुम्हीं पहले से याद दिला दिया करो. हमने काम करने को मना किया क्या कभी ?'

हे भगवान !

वह पूछती है ,'तू ही बता अब मैं क्या करूँ - रोऊँ कि हँसूँ ?'

एक साथ, दोनों चलेंगे .

और मैं क्या कहूँ भला !

*

7 टिप्‍पणियां:

  1. हा.हा..हा.... :-)

    बहुत बढ़िया प्रतिभा जी......सच बताऊँ तो मुझे हँसी आ रही है....कितना सरल व्यक्तित्व है पुरुषों का....क्या किया जा सकता है वैसे इन मामलो में लगभग सब एक जैसे ही होते हैं....वैसे गृह मंत्रालय तो महिलाओं के हाथ में ही सही रहता है|

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  2. :) :) बहुत सटीक लिखा है ..काम को कहाँ मना किया ..बिना चिल्लाहट के भी कोई घर घर होता है ..कितना महत्त्व है स्त्री का बिना उसके कोई पत्ता भी नहीं हिलता ..हा हा

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  3. हास्य व्यंग्य प्रधान घर घर की कहानी

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  4. कहानी हर घर की...बहुत मजेदार
    वाह!!!

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