बुधवार, 28 अप्रैल 2010

पि. 5. -युगान्त के बाद

बहेलिये के एक तीर ने युग का अंत कर दिया . श्री कृष्ण का महाप्रस्थान और ऐश्वर्यमयी द्वारका समुद्र में विलीन ! बलवान काल के आगे अर्जुन के बाणों की प्रखरता क्षीण पड़ गयी थी । द्वारका से श्री कृष्ण के रनिवास को सुरक्षित लाने का प्रयास भीलों द्वारा मार्ग में उनके हरण का कारण बन गया .
सब कुछ बदल गया था ,लेकिन जीवन का क्रम अनवरत चलता रहा ।महाभारत के साथ बहुत-कुछ बीत गया .हर विपद् में सहारा देनेवाला अभिन्न मित्र खोकर नर एकाकी रह गया.प्रिय सखा अब कभी नहीं मिलेगा जान कर भी पांचाली ,दिन बिताती रही .
और फिर प्रस्थान की बेला आ गई .
पाँचो पाँडव द्रौपदी के साथ हिमालय की ओर चल पड़े.
हिमालय के भव्य और दिव्य परिवेश में आगे और आगे और ऊपर चढने लगे वे पाँचो अपनी सहधर्मिणी द्रौपदी को लिए .
शिखर-शिखर चढ़ते जा रहे थे ,जीवन भर संघर्ष से थके प्राणी .अंत में विजय मिली थी, पर क्या-क्या मूल्य चुकाना पड़ा .
आरोहण का क्रम जारी रहा .भयंकर शीत ,पग-पग पर धमकाती उद्दंड हवायें पल-पल विचलित करती जीवनी-शक्ति खींचे ले रही हैं.लड़खड़ाते ,एक दूसरे को सहारा देते बढ़े जा रहे है धीरे-धीरे !
सर्व प्रथम द्रौपदी की सहनशक्ति ने जवाब दे दिया . अग्नि-संभवा पाँचाली जीवन भर ताप झेलती रही .उसके जीवन का उपसंहार हो रहा था चिर-शीतल शिखरों के बीच .
गिर पड़ी द्रौपदी .
द्रुत गति से अर्जुन आगे आए .वही लाए थे उसे कितने स्वयंबर में जीत कर ,अपने पौरुष की परीक्षा देकर .
प्रिया को अंतिम क्षणों में बांहों का सहारा देने आगे बढ़े .
'नहीं .'युधिष्ठिर ने रोक दिया .
,'अब उसे किसी की आवश्यकता नहीं बंधु,उस ओर अकेले ही जाना है .'
जिस नारी ने जीवन भर हमारा साथ दिया आज हम उसके लिए कुछ नहीं कर पा रहे हैं .क्या कभी कुछ कर पाए ?आज भी इतना विवश क्यों हैं पार्थ ?
द्रौपदी ने क्षण भऱ को नेत्र खोले .पाँचो पर दृष्टिपात किया ,अर्जुन पर आँख कुछ टिकी .जैसे बिदा मांग रही हो .बहुत धीमें बोल फूटे 'हे गोविन्द!'और जीवन भर जलनेवाली वह वर्तिका बुझ गई .
..भीम के आगे बढते पग थम गए .नकुल,सहदेव स्तब्ध .
अर्जुन ने आँसू छिपा लिए .भीम धम्म से वहीं बैठ गए .
युधिष्ठिर स्थिर हैं .
बस अब कुछ नहीं है यहां .चलो, आगे चलो .
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