शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

चिन्ता तुम कहाँ हो ?

*
. उस दिन एम.ए. फाइनल की कक्षा लेकर डिपार्टमेंट की ओर जा रही थी कि चिन्ता पीछे आती दिखाई दी .क्लास की बड़ी सजग छात्रा है .ऐसी छात्राओं को पढ़ाना अच्छा लगता है . 
साहित्य का इतिहास पढ़ाते समय राम-काव्य और कृष्ण काव्य परंपराओं  की परवर्ती रचनाओं में बदलती हुई दृष्टियों और सामाजिक संबंधों के तेवर कैसे बदल गये हैं यह स्पष्ट करते  बदलते हुये समाज में नारी के प्रति बदलते हुये मानों का विश्लेषण के साथ  ,सीता और राधा की बात अनायास ही आ जाती है ।वाल्मीकि की तेजस्विनी सीता तुलसी के कव्य में कितिनी निरीह बना दी रई है ,और कृष्ण काव्य में बाल्यवस्था की सखी राधा को परकीया बना कर  कितना महत्व दिया गया  है यही बातें चल रही थीं ।
'मैम मैं कई बार आपके पास आने को हुई पर आप बिज़ी थीं या आपके साथ कोई -न -कोई होता था.मैं आपसे कुछ डिस्कस करना चाहती हूं . '
'हाँ,हाँ ,आओ चलो बैठते हैं .

'देखिये सीता के भक्त कितने हैं और राधा के ..सारी कृष्ण भक्ति राधा से भरी पड़ी है ,कहीं -कहीं तो केवल राधा, कृष्ण भी पीछे रह गये .कैसी है पुरुष-वृत्ति !हमें उपदेश दें सीता का अनुकण करो और खुद राधा के पीछे दौड़  जायँ ?
मुझे हँसी आ गई ,वह भी मुस्करा पड़ी ,
'देखो ,चिन्ता !एक बात भक्ति में राधा -भाव का महत्व है  पर बाद मे  कवियों ने राधा -कृष्ण के बहाने अपनी वासना कथा में रंग भरते गये .' 
हम दोनों खुल कर हँस पड़े  .
मैं उसका मुँह देखती रही .बहुत सचेत छात्रा थी वह ,काफ़ी कुछ पढ़ा था उसने  अध्ययशीला थी .ऐसी छात्रायें बहुत दुर्लभ होती जा रही हैं .उम्र में अन्य कक्षा की अन्य छात्राओं से थोड़ा बड़ी बड़ी ,विवाहिता भी .अक्सर ही काफ़ी उम्रदराज़ लड़कियाँ ,खाली बैठे की बोरियत से छुटकारा पाने को हिन्दी में एडमिशन ले लेती हैं -बैठे-ठाले एम.ए. हो जायें ,क्या बुरा है .
  
कभी-कभी क्लास में कसी बिन्दु पर वह कुछ पूछती और विषयान्तर हो जाता तो कुछ छात्राओं के चेहरे से लगता कि लगता यह  पढ़ाई में बाधा डाल रही है .
'देखिये न वाल्मीकि रामायण की सीता की सारी तेजस्विता और प्रखरता तुलसी के मानस में ग़ायब हो गई ।दीन और आश्रिता बन गई .'
'रचनाकार की अपनी दृष्टि है.'
'बहुत पहले जब हमारे प्रोफ़ेसर सा.ने लड़कियों की ओर देख कर कहा था -'सीता अनुकरणीया है राधा नहीं !'
 हमने कुछ नहीं कहा था, हमारा समय दूसरा था .
और आज मेरी छात्रा  प्रश्न कर रही है .

 छात्राओं से सब-कुछ नहीं कहा जा सकता .एक सीमा में रह कर ही पढाना है .
मैंने  जो कहा वह किसी एक के लिए नहीं, समाज की मान्यताओं के लिये कहा ।मुझे जो मिला था वही उपदेश मैनें  दे दिया .

कभी-कभी  स्वयं से पूछती हूँ  मैं इन्हें कुछ उल्टा-सीधी तो नहीं पढ़ा रही! जो परंपरा से चला आ रहा है उसे आगे बढ़ाना है अगर लीक से हट कर इनका स्वतंत्र व्यक्तित्व बन गया तो बहुत से प्रश्न उठ खड़े होंगे ,जिनका समाधान किसी के पास नहीं .
इतना और ऐसा सोचनेवाली लड़की कितनी सुखी होगी !

बहुत कुछ जानना  चाहती हूँ .
पर चिन्ता ,तुम हो कहाँ ?

4 टिप्‍पणियां:

  1. बस्तों के भार में दबे विद्यार्थियों में इस तरह की छात्रा का मिलना मुश्किल ही है।

    जवाब देंहटाएं
  2. बेहतरीन। लाजवाब।

    *** हिन्दी प्रेम एवं अनुराग की भाषा है।

    जवाब देंहटाएं
  3. अच्छा तो आप प्रोफेसर है प्रतिभा जी....आपकी पोस्ट पढ़ कर मैं इतना ही कह सकता हूँ की कभी न कभी किसी ने तो बदलाव की बात करनी ही है, तो आप क्यूँ नहीं ?

    कभी फुर्सत मिले तो हमारे ब्लॉग पर भी आईएगा:-


    http://jazbaattheemotions.blogspot.com/
    http://mirzagalibatribute.blogspot.com/
    http://khaleelzibran.blogspot.com/
    http://qalamkasipahi.blogspot.com/

    जवाब देंहटाएं
  4. ''अगर लीक से हट कर इनका स्वतंत्र व्यक्तित्व बन गया तो बहुत से प्रश्न उठ खड़े होंगे ,जिनका समाधान किसी के पास नहीं''

    मुआफ कीजियेगा मगर सच्ची में.......मुझे ये पढ़कर बहुत खीज हुई....जब हम सब जानते हैं...सही गलत का भान रखते हैं.....तो समाधान मिले या न मिले.....उससे हमें क्या...??? :-o जब पुरुष प्रधान समाज अपनी मुक्ति के लिए स्त्री वर्ग को संकुचित व्यवहार और चौके से चौखट तक के संसार में जीने को विवश करता है....तब तो कोई पुरुष नहीं सोचता कुछ....अपने क़दमों को उचित जान नारी का ही दामन करता आया है हमेशा..तो अब कोई नारी काहे को सोचती रहे इतना.....?? अरे! अपने हक़ लो....अपना जीवन अपनी तरह जियो.....वैसे भी कृष्ण जी कहते हैं....यहाँ कोई पुरुष है ही नहीं.....कृष्ण के अलावा सब कुछ प्रकृति स्वरूपा नारी ही है......इसी क्षण ये विचार कौंधा मन में..और जोर की हंसी आई.......कि चलो मैं तो कृष्ण जी को पूजती हूँ....नारी हूँ...सो स्वीकार कर लिया.......मगर क्या बीतती होगी उस पुरुष पर??? जिसे उस पौरुष का अहंकार है.... जो औरत पर हाथ उठाने..उसे रूढ़ियों तले दबा कर रखने से विस्तार पाता है.......कभी कृष्ण जी के द्वारे आकर ये जानता होगा...क यहाँ सब नारियां ही हैं ..मात्र कृष्ण ही पुरुष हैं.......तो जाने कैसे मनोभाव होते होंगे उसके ना..??

    हम्म भटकने के लिए मुआफी...:(.......


    एक बात कहे बिना नहीं रहे जा रही.......

    ''इतना और ऐसा सोचनेवाली लड़की कितनी सुखी होगी !''

    :-o
    मैं samajh नहीं pa रहीं हूँ की ये इस तरह के विचार रखने walon के bhavishya पर vyangya है या चिंता जी sareekhi chhatraaon के स्वतंत्र व्यक्तित्व के paksh में asha के saath vyakt की gayi एक santusht prasann sambhavna ??

    halanki mujhe doosri baat sahi lagi zyada..kyunki '?' nahin laga hai....magar kehna pehli waali baat chahungi....

    ki...
    सुख की आकांक्षा to एकदम व्यर्थ है....और ऐसा सोचना भी आखिर क्यूँ?? इस क्षणिक सुख की चाह में हम प्रगति कि राह क्यूँ बंद कर दें...........?? क्यूँ न उठ खड़ें हों..और किसी और को न उठने दें स्वतंत्रता की चाह में...अपनी अधिकारों के कुरुक्षेत्र में..??
    दुःख तो किसी न किसी रूप और मात्रा में मिलते ही हैं सभी को.....अंबानी हो या गली का चाय वाला....और कौन guarantee देने वाला है कि दुःख तो आएगा ही नहीं इस सुख के बाद या दुःख का हिस्सा पूरा हुआ..अब सुख ही सुख है...........ये तो मन की स्थिति ही निर्धारित करती है...आप सुखी रहेंगे या दुखी....परिस्थितयाँ गौण हो जातीं हैं मन के आगे.....विज्ञान भी यही कहता है और अध्यात्म भी।

    मन की प्रार्थना रहेगी कि ..चिंता जी जहाँ कहीं हों..उनका व्यक्तित्व स्वतंत्र हो ..किसी समाधान की चिंता में वे कहीं घुट घुट के रूढ़िवादी परंपराएं न निभा रहीं हों......।

    ugr swabhaav है......khaskar इस तरह के vishyon पर ऐसा न likhoon.....ऐसा हो ही नहीं पाता.......kshamapraarthi अगर आपको कोई baat aapko aahat kare to...!!

    chaliye shubhraatri..!:)

    जवाब देंहटाएं