गुरुवार, 12 अगस्त 2010

दोषी हम ही हैं

मुझे लगता है हमारी धर्म की धारणा कुछ कुण्ठित हो गई है .उसे हम भक्ति से या कर्मकाण्ड से जोड़ देते हैं ।लेकन भक्ति अलग चीज़ है धर्म अलग.
धर्म वह कल्याणकारी तत्व है जो धारण करता है -व्यक्ति को ,समाज को ,और जगत को .भक्त किसी विशेष का होता है ,हृदय से उस विशेष के प्रति समर्पित होकर ,सिर्फ़ उसी के प्रति ।पर धर्म सब को अपने दायरे में समेटता है .सबके अपने अपने ढंग हैं धर्म को आचरण में लाने के -भक्त बन कर ,ज्ञान के द्वारा ,और कर्म से इन तीनों में कोई अंतर्विरोध नहीं -तीनों मिल कर पूर्ण होते हैं.
कोरी भक्ति व्यक्ति-परक हो जाती है .'वह उनका भक्त है' कहने मैं एक व्यंग्य की ध्वनि छिपी है .मतलब वह उनके हर काम की वाह-वाही करेगा बिना सेचे समझे ।कमियों या त्रुटियों को उजागर करना, समझना चाहेगा ही नहीं .उसे लगता है इससे भक्ति कलंकित होगी (अंग्रेजी में इनके समानान्तर डिवोशन और डिवोटी शब्द हैं,लेकिन उनसे निष्ठा व्यक्त होती है). आज की दुनियाँ में बौद्धिकता की प्रधानता है विवेक से निर्णय करने की अपेक्षा की जाती है -विशेष रूप से प्रबुद्ध वर्ग में .गुणों के वर्णन में वह दोषों को भी विशेषताओं और गुणों के रूप में दिखाना चाहता है या उनके उल्लेख से ही कतरा जाता है . यह हठधर्मी उसका स्वभाव बन जाती है .और महिमामंडन में सारी सीमायें लाँघ जाते है (सती प्रथा ,या राम का रावण की बहिन या अपनी पत्नी के प्रति व्यवहार,विष्णु का तुलसी,बालि आदि से छल करना )।सार्जनिक दृष्ट से जो कुछ अनुचित है उसका महिमामंडन आगे जा कर ,उपहास और कौतुक का कारण बन जाता है .
शुरू में महिमा मंडन की चौंध में कमज़ोरियाँ भले ही दखाई न दें पर यही हठधर्मी आलोचना का हेतु बनती है और लोग कहते हैं आपके धर्म में तो ऐसा होता है जब कि यह पात्र का दोष है धर्म का नहीं ।हमारे यहाँ पक्का भक्त वह है जो आराध्य की कमियों को सुनना भी न चाहे ,समझना तो बाद की बात है .यहाँ वह गाँधी जी के तीन बंदरों का अनुकरण करता है ,आपने इष्ट की त्रुटि या आलोचना ,न देखो ,न सुनो ,न बोलो ।लेकन ज़माना देखने सुनने ,साबित करने का है ,अंधविश्वास का नहीं ,यहीं हम धर्म के आलोचकों से मात खा जाते हैं और रक्षात्मक मुद्रा में आ जाते हैं .
एक तो तमाम रूढियाँ,बाह्याचार ,और थोपी हुई मान्यताएं धर्म के नाम पर घुस आई हैं और मूल भावना को आच्छन्न कर लिया है .इसके दोषी भी हमी लोग हैं तभी अपने धर्म पर ओरों के आक्षेप सुनने पड़ते हैं .

3 टिप्‍पणियां:

  1. काश कुछ धर्मांध लोग भी आपके लेख को पढ़ कर, अपने " सुज्ञान " का मर्म जान सकें ! शुभकामनायें

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  2. बिलकुल सच्ची बात की आपने प्रतिभा जी, काफी दिनों बाद आपकी पोस्ट पड़ी | आपके विचार बहुत अछे हैं, जिनसे आपकी उच्च शिक्षा का पता चलता है .....

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  3. ''गुणों के वर्णन में वह दोषों को भी विशेषताओं और गुणों के रूप में दिखाना चाहता है या उनके उल्लेख से ही कतरा जाता है ..''

    बहुत सटीक कहा प्रतिभा जी,
    .....जी खुश हो गया ये पढ़कर....सही को सही और गलत को गलत कहना तो आना ही चाहिए......

    वास्तव में धर्म वो तराजू है..जिस पर आप गुण दोषों को नाप तौल सकते हैं...बहुत लाज़मी है...जो बात मेरे लिए धर्म कि दृष्टि से सही हो....वो आपके लिए एकदम गलत उसी दृष्टिमें..
    और फिर गुणों को खुली आँखों से दोषों के संग स्वीकारना ही चाहिए...मगर ज़रूरी नहीं वे आत्मसात किये जाएँ.......

    ''धर्म में तो ऐसा होता है जब कि यह पात्र का दोष है धर्म का नहीं''

    वाह ! एक और अच्छी बात कही.... कई बार बिना बात का ही अफसाना बना दिया जाता है ...ईद के शुभ अवसर पर अपनी घनिष्ठ मुस्लिम सहेली के घर रुकना हुआ भोपाल में....वहां पहली बार 'कुर्बानी' के दृश्य सुने...ह्रदय बड़ा व्यथित हुआ....पूरा फ्रिज नॉन-वेज से भरा हुआ.....बता नहीं सकती कैसे दिन कटा वहां.....तुरंत दूसरे दिन हॉस्टल पहुंची......और अखबार,किताबें , इंटरनेट की सहायता से पता किया......कि ये क़ुर्बानी के पीछे वास्तविक कारण क्या है.......इतनी जीव हत्याएं....कैसे किसी धर्म में justify की जा सकतीं हैं... अंत में सार निकला...कि हज़रत मोहम्मद जी को अपनी किसी ''प्रिय वस्तु'' का त्याग करना था......जो उन्होंने अपने बेटे में पायी........अब गौर फरमाईयेगा...यहाँ ''प्रिय'' वाला concept लोग भूल गए और ''पुत्र'' याद रखा...सो एक मासूम जीव को मात्र ३-४ दिन के लिए खरीदकर.....बेटा सा बनाकर क़ुर्बान करके रीति निभा लेते हैं.......जैसा पैगम्बर साहब ने किया......मगर भावना भूल गए......:(
    करना ये चाहिए कि उपरवाले के लिए अपनी प्रिय चीज़ें त्यागें......एक शराबी के लिए ये शराब हो सकती है...सिगरेट हो सकती है......एक ससुर अपनी बहुओं को अनावश्यक परदे से मुक्ति दे सकता है..वगैरह वगैरह !!

    ''एक तो तमाम रूढियाँ,बाह्याचार ,और थोपी हुई मान्यताएं धर्म के नाम पर घुस आई हैं और मूल भावना को आच्छन्न कर लिया है .''
    ये हर धर्म में है ...हर जगह.....:( वैसे भी भारत में धर्म के नाम पर आप करोड़ों रूपए और लोगों को जमा कर सकते हैं

    खैर...कहते हैं और बहुत जगह padha है.....bhakti में pravesh करते samay buddhi त्याग deni hoti है........kab kahan कैसे क्यूँ??? ये chhodna padta है...शायद ये बहुत aage की बात हो gayi है......:)ise yahin rokti hoon....:(

    मगर आस्था की चादर में गलत बातों को छुपा लेना भी भूल ही है.......

    मैं पूर्णत: सहमत हूँ आपके इस लेख से......और भी नयी बातें जानने को मिलीं...जानी हुई बातों को कहने का तरीका देखा......बहुत ही अच्छा लेख है.......

    आपके इस लेख के 'समापन' को कुछ कहना चाहती हूँ......:).....ये कि ,'' बाबरी मस्जिद के विवादास्पद फैसले के बाद भी देश में शांति रही......और एक वो दिन थे...कार सेवाके बाद के...भोपाल ..रायसेन के दंगे......जो मेरे बचपन ने अपनी आँखों से देखे...मगर बिसराए नहीं......

    hmm वक़्त करवट ले रहा है.......नईं कोंपलें फूट चुकीं हैं दिलों में.....पुराने पीले पड़े पत्तों की तरह रूढ़ियाँ भी स्थान छोड़ेंगी.......ऐसा होगा मगर एक लम्बी प्रतीक्षा के बाद......मगर होगा ज़रूर.......आमीन !!

    बधाई आपको सार्थक लेखन के लिए !!

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