शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

चलती चक्की

*
'चलती चक्की देख कर दिया कबीरा रोय...'
अगर कोई चलती चक्की देख कर रो दे, तो कोई क्या करे !
उसकी बेवकूफ़ी !
 चक्की तो चलेगी ही ,दाने पिसेंगे ,नहीं तो लोग खायेंगे क्या?
ऐसे, जीवन कैसे चलेगा !
ये तो दुनिया की रीत है ,सृष्टि का नियम .तुम दाना बनने के बजाय चक्की के पाट बनो जो काम कर रहा है ।या भोक्ता बनो ,पोषण प्राप्त करो .
देखो कबीर, चक्की चलानेवाले हाथों को कभी देखा? उनके बारे में सोचते जो घूमते हैं भारी पाटों को खींचते हुए
तुम्हारी भूख शान्त करने को . .कभी ख़ुद भी चला कर देखो,कबीर .

वाह रे  !कभी चलती  चक्की देख कर रोते हो ..कभी ,जागते हो और रोते हो
' सुखिया सब संसार है खाए अरु सोवै ,
दुखिया दास कबीर है जागे अरु रोवै '.
दुनिया में आये हो तो रो-रो कर मत रहो , हिम्मत से काम लो !
यह तो सारी दुनिया चलती हुई चक्की है
 यह तो यहाँ का क्रम है ।पत्ते झड़ेंगे ,दिन डूबेगा ।फिर वसंतऋतु आयेगी ,रात के बाद फिर सुबह होगी ।
तुम तो जानते हो -
'सुर नर मुनि अरु देवता ,सप्त-दीप, नव-खंड,
कह कबीर सब भोगिया देह धरे को दंड.'
देह धरी है ,दंड  भुगतना ही पड़ेगा- रोकर ,चाहे हँस कर !
*!

5 टिप्‍पणियां:

  1. कबीर होते तो आपके बारे में लिखते, जागा भाग्य कबीर का बहिन मिली गयी आज ...
    कबीर को समझाना अच्छा लगा ...मगर उनकी समझ कुछ अलग ही है .......
    आपकी बात ब्लागर समझें तो जानूं !
    शुभकामनायें !

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  2. हमारे ब्लागर्स भी थाह लेने में कुशल हैं, सतीश जी !अब तो काफ़ी को पढ़-पढ़ कर जानने लगी हूँ.
    - प्रतिभा.

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  3. जहाँ तक मेरी समझ है आपकी इस पोस्ट के पीछे कबीर जैसे महान संत की आलोचना करने का कोई इरादा नहीं है| आपने ये बातें भौतिक रूप में कहीं है, और कबीर जी ने अध्यात्मिक धरातल पर|

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  4. हाँ अंसारी जी ,थोड़े मनोविनोद के साथ संत जी के बहाने भाव-जगत में डूबे प्राणियों को सांसारिकता का भान कराना,बस इसीलिए .

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