शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

पि. नं.3.दादा चुप !

बात सलूके की भी आई थी ।तो और सुनिये-
हमारे एक दादा ,डिप्टी इन्सपेक्टर ऑफ़ स्कूल्स थे ।
काफ़ी टूरिंग करना पड़ता था पर खातिर भी खूब होती थी ।
दादा ने ही बताया था ।एक बार सर्दी के मौसम में किसी गाँव के स्कूल में दौरे पर गये ।रात में वहीं रुकने की व्यवस्था हुई ।
गाँव में खेती की चीज़ें तो सुलभ होती हैं ।गन्ने का रस आजाता था रसावर बनने के लिये औरघड़े में भर कर सिरका भी अच्छा तैयार हो जाता था ।तब गुड़ बनने का मौसम था ।
खुले में बड़े-बड़ कढ़ाहों में भर कर गन्ने का रस औटता रहता था ।सोंधी गंध से बातावरण महक उठता था (यह तो मैंने मुज़फ़्फ़र नगर में खूब देखा है ,वहां तो तपते हुये गुड़ में मेवा डलवा कर साल भर के लिये जमवा लेते थे ।)जाड़ों में ताज़ा गुड़ दूध के साथ अच्छा लगता हो और फ़ायदा भी करता है ।और गर्म गुड़ तो खाना खाने के बाद मज़े से खाया जाता है ।
तो खाना खाने बाद दादा से पूछा गया गर्म गुड़ खानो को ।उन्होंने कहा ,'ले आओ ,थोड़ा-सा ।'
एक आदमी भट्टी पर दौड़ा गया ।गर्मागर्म गुड़ आया ।काहे पर ?
कोई बर्तन तो वहाँ था नहीं सो एक ग्राँववाले ने एक कपड़े को फैला कर उस पर गुड़ धर दिया .आदमी ने लाकर दादा के सामने प्रस्तुत कर दिया ।
दादा ने देखा ,'ये काहे पर रख लाये हो ?'
'कुछ नहीं साब ,कपड़ा मिला उसी पर रख लाये ।'
कपड़ा ?हुँह तो किसी औरत का सलूका था ।
दादा चुप ।
'नहीं,नहीं ।गुड़ खाने की बिल्कुल इच्छा नहीं है ।'
बड़ी मुश्किल से उन्होंने उस दिन उस गुड़ से पिण्ड छुड़ाया ।
मैंने पूछा,'दादा ,सच्ची में सलूका था ?'
'और नहीं तो क्या !पहले अम्माँ भी तो पहनती थीं ।हमें क्या पता नहीं ?बिल्कुल किसी औरत का उतारा हुआ सलूका था ।'
मेरे मुँह से निकला ,' सलूका ! चलो ,फिर भी गनीमत है ।'
भाभी मुस्करा रहीं थीं और दादा बेचारे फिर चुप !
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