बुधवार, 28 अप्रैल 2010

पि. नं.4.- गाय का सींग

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बहुत छोटी थी तब की एक घटना है .
याद इसलिए आ गई कि अभी थोड़ी देर पहले मेरा 7-8 साल का पोता मेरे पास आकर बैठा और होंठों के साइड में घाव के छोटे-से निशान पर पर हाथ रख कर बोला ,'बड़ी मां ये क्या है ?'
बच्चे को तो बताना ही था -हुआ यह था कि
तब हमलोग मध्य-प्रदेश -तब मध्य-भारत -के एक छोटे से शहर अमझेरा में रहते थे..मेरी एक सहेली थी सरजू ,हम दोनों के घर आमने सामने थे .
बीच में एक मैदान था जिसमें बच्चे खेलते थे और लोगों के गाय-गोरू भी बँधते थे .
तब घरों में गायें पालने का रिवाज था .चारे के भारे लाद-लाद कर घसियारे चक्कर लगा कर बेंच जाते थे .मां पूर्णिमा और अमावस को चारे के भारे खरीद कर गायों को खिलाती थीं .
उस दिन पूर्णिमा थी ,मेरी माँ ने गायों को चारे का गट्ठर डाला था .कई गाएं खा रही थीं .
हम लोग बाहर खेल रहे थे .
खेलते-खेलते ,सरजू और मेरा झगड़ा हो गया .
खेल खतम .कुछ देर खड़े रहे कि आगे क्या हो फिर वह मुँह चिढ़ा कर अपने घर भाग गई .मैंने भी मुँह चिढ़ाया था पर वह भाग चुकी थी उसने देखा ही नहीं .
मैं खड़ी मैदान में .
गाएँ चारा खाए जा रही हैं .उन्हीं में सरजू की गाय भी है .
ये इसकी गाय क्यों खा रही है ?चारा तो मेरी माँ ने डाला है .जब सरजू का मुझसे झगड़ा है तो उसकी गाय क्यों खाए यह हमारे घर का चारा ?
उसकी गाय उस समय गट्ठर में से एक पूला बाहर खींच रही थी .
मैं तुरंत बढ़ी आगे और खींचे हुए पूले का दूसरा सिरा पकड़ कर उसके मुँह से खींच लेना चाहा .
गाय ने मुंह घुमाकर जो सींग मारा ,गहरा घाव हो गया था .बस ये कहो गाल के आर-पार नहीं हुआ.

उसके निशान आज भी मेरे बाएँ गाल पर होंठ के साइड में विद्यमान हैं .
पोता सुनता रहा .फिर उठा और एक बार और मेरा निशान छू कर देखा .पूछा ,'दर्द तो नहीं होता ?'
उत्तर पाकर मुस्कराता हुआ चला गया .
मैं समझ गई उसे किसने भेजा है .
ये बातें सिखा कर और कौन भेज सकता है ! हँसें रहे होंगे दोनों मिल कर !
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