*
'चलती चक्की देख कर दिया कबीरा रोय...'
अगर कोई चलती चक्की देख कर रो दे, तो कोई क्या करे !
उसकी बेवकूफ़ी !
चक्की तो चलेगी ही ,दाने पिसेंगे ,नहीं तो लोग खायेंगे क्या?
ऐसे, जीवन कैसे चलेगा !
ये तो दुनिया की रीत है ,सृष्टि का नियम .तुम दाना बनने के बजाय चक्की के पाट बनो जो काम कर रहा है ।या भोक्ता बनो ,पोषण प्राप्त करो .
देखो कबीर, चक्की चलानेवाले हाथों को कभी देखा? उनके बारे में सोचते जो घूमते हैं भारी पाटों को खींचते हुए
तुम्हारी भूख शान्त करने को . .कभी ख़ुद भी चला कर देखो,कबीर .
वाह रे !कभी चलती चक्की देख कर रोते हो ..कभी ,जागते हो और रोते हो
' सुखिया सब संसार है खाए अरु सोवै ,
दुखिया दास कबीर है जागे अरु रोवै '.
दुनिया में आये हो तो रो-रो कर मत रहो , हिम्मत से काम लो !
यह तो सारी दुनिया चलती हुई चक्की है
यह तो यहाँ का क्रम है ।पत्ते झड़ेंगे ,दिन डूबेगा ।फिर वसंतऋतु आयेगी ,रात के बाद फिर सुबह होगी ।
तुम तो जानते हो -
'सुर नर मुनि अरु देवता ,सप्त-दीप, नव-खंड,
कह कबीर सब भोगिया देह धरे को दंड.'
देह धरी है ,दंड भुगतना ही पड़ेगा- रोकर ,चाहे हँस कर !
*!
शुक्रवार, 27 अगस्त 2010
गुरुवार, 26 अगस्त 2010
लाचार आदमी !
एक ख़बर-
'आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट ने परीक्षा में नकल करने के आरोप में पांच जजों को निलंबित कर दिया है. वारंगल जिला स्थित काकतीय विश्वविद्यालय के आर्ट कॉलेज में 24 अगस्त को मास्टर ऑफ लॉ [एलएलएम] की परीक्षा के दौरान अजीतसिम्हा राव, विजेंदर रेड्डी, एम. किस्तप्पा, श्रीनिवासआचार्य और हनुमंत राव नाम के जज नकल करते पकड़े गए.
विश्वविद्यालय के अतिरिक्त परीक्षा नियंत्रक एन. मनोहर के अनुसार, ये जज कमरा नंबर 102 में परीक्षा दे रहे थे तभी उनके नेतृत्व में एक दल औचक निरीक्षण पर वहां पहुंच गया. इन जजों में से एक ने कापी के अंदर कानून की किताब छुपा रखी थी और उससे नकल कर रहे थे. अन्य जजों के पास से लिखी हुई पर्चियां और पाठ्य पुस्तकों के फाड़े हुए पन्ने बरामद हुए. निरीक्षकों ने इन सभी चीजों को जब्त कर लिया और जजों को आगे लिखने से रोक दिया.'
क्यों क्या जज इंसान नहीं होते ?
परीक्षा के तो नाम से ही दम खुश्क हो जाता है .और क्योंकि परीक्षा दे रहे थे, उस स्थिति में वे केवल परीक्षार्थी थे .न जज थे न मुवक्किल ,न वकील.अगर परीक्षा-कक्ष में जज होते तो तो जजमेंट का काम उनका होता ,वे स्वयं किसी के निरीक्षण के अंतर्गत नहीं होते .
परीक्षा देने की मानसिकता ही अलग होती है .और अचानक निरीक्षण !
बिना वार्निंग के तो गोली भी नहीं चलाई जाती .पहले बता देना था. अब उनका जजमेंट कौन करेगा.साधारण आदमी जजों का न्याय करे इससे बड़ा अन्याय उन पर क्या होगा ?
तरस आ रहा है मुझे तो उन बेचारों पर .
जब राजनीति के ऊँचे-ऊँचे लोग न्याय से ऊपर होते हैं तो एक जज तो वैसे भी न्याय से ऊपर हुआ.न्याय तो एक प्रक्रिया है ,जिसे करनेवाला वह ख़ुद है.
कोई बंद आँखोंवाला न्याय का तराजू सँभाले है ,
- और बेचारा जज - लाचार आदमी !
आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट ने परीक्षा में नकल करने के आरोप में पांच जजों को निलंबित कर दिया है। वारंगल जिला स्थित काकतीय विश्वविद्यालय के आर्ट कॉलेज में 24 अगस्त को मास्टर ऑफ लॉ [एलएलएम] की परीक्षा के दौरान अजीतसिम्हा राव, विजेंदर रेड्डी, एम. किस्तप्पा, श्रीनिवासआचार्य और हनुमंत राव नाम के जज नकल करते पकड़े गए।
विश्वविद्यालय के अतिरिक्त परीक्षा नियंत्रक एन. मनोहर के अनुसार, ये जज कमरा नंबर 102 में परीक्षा दे रहे थे तभी उनके नेतृत्व में एक दल औचक निरीक्षण पर वहां पहुंच गया। इन जजों में से एक ने कापी के अंदर कानून की किताब छुपा रखी थी और उससे नकल कर रहे थे। अन्य जजों के पास से लिखी हुई पर्चियां और पाठ्य पुस्तकों के फाड़े हुए पन्ने बरामद हुए। निरीक्षकों ने इन सभी चीजों को जब्त कर लिया और जजों को आगे लिखने से रोक दिया.'
क्यों क्या जज इंसान नहीं होते ?
परीक्षा के तो नाम से ही दम खुश्क हो जाता है .और क्योंकि परीक्षा दे रहे थे, उस स्थिति में वे केवल परीक्षार्थी थे .न जज थे न मुवक्किल ,न वकील .अगर परीक्षा-कक्ष में जज होते तो तो जजमेंट का काम उनका होता ,वे स्वयं किसी के निरीक्षण के अंतर्गत नहीं होते .
परीक्षा देने की मानसिकता ही अलग होती है .और अचानक निरीक्षण !
बिना वार्निंग के तो गोली भी नहीं चलाई जाती .पहले बता देना था . अब उनका जजमेंट कौन करेगा .साधारण आदमी जजों का न्याय करे इससे बड़ा अन्याय उन पर क्या होगा .
तरस आ रहा है मुझे तो उन बेचारों पर .
जब राजनीति के ऊँचे-ऊँचे लोग न्याय से ऊपर होते हैं तो एक जज तो वैसे भी न्याय से ऊपर हुआ .न्याय तो एक प्रक्रिया है ,जिसे करनेवाला वह ख़ुद है.
कोई बंद आँखोंवाला पात्र न्याय का तराजू सँभाले है
- और बेचारा जज ,लाचार आदमी !
शुक्रवार, 20 अगस्त 2010
चिन्ता तुम कहाँ हो ?
*
. उस दिन एम.ए. फाइनल की कक्षा लेकर डिपार्टमेंट की ओर जा रही थी कि चिन्ता पीछे आती दिखाई दी .क्लास की बड़ी सजग छात्रा है .ऐसी छात्राओं को पढ़ाना अच्छा लगता है .
साहित्य का इतिहास पढ़ाते समय राम-काव्य और कृष्ण काव्य परंपराओं की परवर्ती रचनाओं में बदलती हुई दृष्टियों और सामाजिक संबंधों के तेवर कैसे बदल गये हैं यह स्पष्ट करते बदलते हुये समाज में नारी के प्रति बदलते हुये मानों का विश्लेषण के साथ ,सीता और राधा की बात अनायास ही आ जाती है ।वाल्मीकि की तेजस्विनी सीता तुलसी के कव्य में कितिनी निरीह बना दी रई है ,और कृष्ण काव्य में बाल्यवस्था की सखी राधा को परकीया बना कर कितना महत्व दिया गया है यही बातें चल रही थीं ।
'मैम मैं कई बार आपके पास आने को हुई पर आप बिज़ी थीं या आपके साथ कोई -न -कोई होता था.मैं आपसे कुछ डिस्कस करना चाहती हूं . '
'हाँ,हाँ ,आओ चलो बैठते हैं .
'देखिये सीता के भक्त कितने हैं और राधा के ..सारी कृष्ण भक्ति राधा से भरी पड़ी है ,कहीं -कहीं तो केवल राधा, कृष्ण भी पीछे रह गये .कैसी है पुरुष-वृत्ति !हमें उपदेश दें सीता का अनुकण करो और खुद राधा के पीछे दौड़ जायँ ?
मुझे हँसी आ गई ,वह भी मुस्करा पड़ी ,
'देखो ,चिन्ता !एक बात भक्ति में राधा -भाव का महत्व है पर बाद मे कवियों ने राधा -कृष्ण के बहाने अपनी वासना कथा में रंग भरते गये .'
हम दोनों खुल कर हँस पड़े .
मैं उसका मुँह देखती रही .बहुत सचेत छात्रा थी वह ,काफ़ी कुछ पढ़ा था उसने अध्ययशीला थी .ऐसी छात्रायें बहुत दुर्लभ होती जा रही हैं .उम्र में अन्य कक्षा की अन्य छात्राओं से थोड़ा बड़ी बड़ी ,विवाहिता भी .अक्सर ही काफ़ी उम्रदराज़ लड़कियाँ ,खाली बैठे की बोरियत से छुटकारा पाने को हिन्दी में एडमिशन ले लेती हैं -बैठे-ठाले एम.ए. हो जायें ,क्या बुरा है .
कभी-कभी क्लास में कसी बिन्दु पर वह कुछ पूछती और विषयान्तर हो जाता तो कुछ छात्राओं के चेहरे से लगता कि लगता यह पढ़ाई में बाधा डाल रही है .
'देखिये न वाल्मीकि रामायण की सीता की सारी तेजस्विता और प्रखरता तुलसी के मानस में ग़ायब हो गई ।दीन और आश्रिता बन गई .'
'रचनाकार की अपनी दृष्टि है.'
'बहुत पहले जब हमारे प्रोफ़ेसर सा.ने लड़कियों की ओर देख कर कहा था -'सीता अनुकरणीया है राधा नहीं !'
हमने कुछ नहीं कहा था, हमारा समय दूसरा था .
और आज मेरी छात्रा प्रश्न कर रही है .
छात्राओं से सब-कुछ नहीं कहा जा सकता .एक सीमा में रह कर ही पढाना है .
मैंने जो कहा वह किसी एक के लिए नहीं, समाज की मान्यताओं के लिये कहा ।मुझे जो मिला था वही उपदेश मैनें दे दिया .
कभी-कभी स्वयं से पूछती हूँ मैं इन्हें कुछ उल्टा-सीधी तो नहीं पढ़ा रही! जो परंपरा से चला आ रहा है उसे आगे बढ़ाना है अगर लीक से हट कर इनका स्वतंत्र व्यक्तित्व बन गया तो बहुत से प्रश्न उठ खड़े होंगे ,जिनका समाधान किसी के पास नहीं .
इतना और ऐसा सोचनेवाली लड़की कितनी सुखी होगी !
बहुत कुछ जानना चाहती हूँ .
पर चिन्ता ,तुम हो कहाँ ?
गुरुवार, 12 अगस्त 2010
दोषी हम ही हैं
मुझे लगता है हमारी धर्म की धारणा कुछ कुण्ठित हो गई है .उसे हम भक्ति से या कर्मकाण्ड से जोड़ देते हैं ।लेकन भक्ति अलग चीज़ है धर्म अलग.
धर्म वह कल्याणकारी तत्व है जो धारण करता है -व्यक्ति को ,समाज को ,और जगत को .भक्त किसी विशेष का होता है ,हृदय से उस विशेष के प्रति समर्पित होकर ,सिर्फ़ उसी के प्रति ।पर धर्म सब को अपने दायरे में समेटता है .सबके अपने अपने ढंग हैं धर्म को आचरण में लाने के -भक्त बन कर ,ज्ञान के द्वारा ,और कर्म से इन तीनों में कोई अंतर्विरोध नहीं -तीनों मिल कर पूर्ण होते हैं.
कोरी भक्ति व्यक्ति-परक हो जाती है .'वह उनका भक्त है' कहने मैं एक व्यंग्य की ध्वनि छिपी है .मतलब वह उनके हर काम की वाह-वाही करेगा बिना सेचे समझे ।कमियों या त्रुटियों को उजागर करना, समझना चाहेगा ही नहीं .उसे लगता है इससे भक्ति कलंकित होगी (अंग्रेजी में इनके समानान्तर डिवोशन और डिवोटी शब्द हैं,लेकिन उनसे निष्ठा व्यक्त होती है). आज की दुनियाँ में बौद्धिकता की प्रधानता है विवेक से निर्णय करने की अपेक्षा की जाती है -विशेष रूप से प्रबुद्ध वर्ग में .गुणों के वर्णन में वह दोषों को भी विशेषताओं और गुणों के रूप में दिखाना चाहता है या उनके उल्लेख से ही कतरा जाता है . यह हठधर्मी उसका स्वभाव बन जाती है .और महिमामंडन में सारी सीमायें लाँघ जाते है (सती प्रथा ,या राम का रावण की बहिन या अपनी पत्नी के प्रति व्यवहार,विष्णु का तुलसी,बालि आदि से छल करना )।सार्जनिक दृष्ट से जो कुछ अनुचित है उसका महिमामंडन आगे जा कर ,उपहास और कौतुक का कारण बन जाता है .
शुरू में महिमा मंडन की चौंध में कमज़ोरियाँ भले ही दखाई न दें पर यही हठधर्मी आलोचना का हेतु बनती है और लोग कहते हैं आपके धर्म में तो ऐसा होता है जब कि यह पात्र का दोष है धर्म का नहीं ।हमारे यहाँ पक्का भक्त वह है जो आराध्य की कमियों को सुनना भी न चाहे ,समझना तो बाद की बात है .यहाँ वह गाँधी जी के तीन बंदरों का अनुकरण करता है ,आपने इष्ट की त्रुटि या आलोचना ,न देखो ,न सुनो ,न बोलो ।लेकन ज़माना देखने सुनने ,साबित करने का है ,अंधविश्वास का नहीं ,यहीं हम धर्म के आलोचकों से मात खा जाते हैं और रक्षात्मक मुद्रा में आ जाते हैं .
एक तो तमाम रूढियाँ,बाह्याचार ,और थोपी हुई मान्यताएं धर्म के नाम पर घुस आई हैं और मूल भावना को आच्छन्न कर लिया है .इसके दोषी भी हमी लोग हैं तभी अपने धर्म पर ओरों के आक्षेप सुनने पड़ते हैं .
धर्म वह कल्याणकारी तत्व है जो धारण करता है -व्यक्ति को ,समाज को ,और जगत को .भक्त किसी विशेष का होता है ,हृदय से उस विशेष के प्रति समर्पित होकर ,सिर्फ़ उसी के प्रति ।पर धर्म सब को अपने दायरे में समेटता है .सबके अपने अपने ढंग हैं धर्म को आचरण में लाने के -भक्त बन कर ,ज्ञान के द्वारा ,और कर्म से इन तीनों में कोई अंतर्विरोध नहीं -तीनों मिल कर पूर्ण होते हैं.
कोरी भक्ति व्यक्ति-परक हो जाती है .'वह उनका भक्त है' कहने मैं एक व्यंग्य की ध्वनि छिपी है .मतलब वह उनके हर काम की वाह-वाही करेगा बिना सेचे समझे ।कमियों या त्रुटियों को उजागर करना, समझना चाहेगा ही नहीं .उसे लगता है इससे भक्ति कलंकित होगी (अंग्रेजी में इनके समानान्तर डिवोशन और डिवोटी शब्द हैं,लेकिन उनसे निष्ठा व्यक्त होती है). आज की दुनियाँ में बौद्धिकता की प्रधानता है विवेक से निर्णय करने की अपेक्षा की जाती है -विशेष रूप से प्रबुद्ध वर्ग में .गुणों के वर्णन में वह दोषों को भी विशेषताओं और गुणों के रूप में दिखाना चाहता है या उनके उल्लेख से ही कतरा जाता है . यह हठधर्मी उसका स्वभाव बन जाती है .और महिमामंडन में सारी सीमायें लाँघ जाते है (सती प्रथा ,या राम का रावण की बहिन या अपनी पत्नी के प्रति व्यवहार,विष्णु का तुलसी,बालि आदि से छल करना )।सार्जनिक दृष्ट से जो कुछ अनुचित है उसका महिमामंडन आगे जा कर ,उपहास और कौतुक का कारण बन जाता है .
शुरू में महिमा मंडन की चौंध में कमज़ोरियाँ भले ही दखाई न दें पर यही हठधर्मी आलोचना का हेतु बनती है और लोग कहते हैं आपके धर्म में तो ऐसा होता है जब कि यह पात्र का दोष है धर्म का नहीं ।हमारे यहाँ पक्का भक्त वह है जो आराध्य की कमियों को सुनना भी न चाहे ,समझना तो बाद की बात है .यहाँ वह गाँधी जी के तीन बंदरों का अनुकरण करता है ,आपने इष्ट की त्रुटि या आलोचना ,न देखो ,न सुनो ,न बोलो ।लेकन ज़माना देखने सुनने ,साबित करने का है ,अंधविश्वास का नहीं ,यहीं हम धर्म के आलोचकों से मात खा जाते हैं और रक्षात्मक मुद्रा में आ जाते हैं .
एक तो तमाम रूढियाँ,बाह्याचार ,और थोपी हुई मान्यताएं धर्म के नाम पर घुस आई हैं और मूल भावना को आच्छन्न कर लिया है .इसके दोषी भी हमी लोग हैं तभी अपने धर्म पर ओरों के आक्षेप सुनने पड़ते हैं .
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