रविवार, 14 अक्टूबर 2012

स्वप्नो का क्षरण


स्वप्नो का क्षरण .(चर्चा के लिये )

आज जिसे मध्य प्रदेश कहते हैं ,पहले यह क्षेत्र मध्य- भारत कहलाता था .धरती की अंतराग्नि की फूत्कार से रचित रमणीय पठारी भूमि ! मालवा का क्षेत्र उसी का एक भाग है - भारत का हृदय स्थल ,सपनों के समान ही ऊबड़-खाबड़,जिसे सींचते रहे जीवनदायी पयस्विनियों के सरस प्रवाह !.उर्वर काली माटी , मां का  काजल-पुँछा स्नेहांचल हो जैसे . लोगों में प्रकृति के  प्रति विशेष लगाव यहाँ की विशेषता है .
प्रायः ही वन-भोजन के लिये वनों में पहुँच जाना ,वहीं का  ईंधन बटोर ,दालबाटी (चूरमा भी) बनाना और चारों ओर के सघन ढाक-वनों से प्राप्त पर्णों के दोने-पत्तल बना कर जीमना . पानी की कोई कमी नहीं . आये दिन कोई आयोजन .कभी मंगलनाथ की यात्रा ,कभी शरद्-पूर्णिमा का मेला कभी घट्या की जातरा .वनों में सीताफल (शरीफ़ा) और घुँघचियों के ढेर .- बड़े होने तक यहीं रही-बढ़ी. शिक्षा-दीक्षा भी संदीपनि गुरु के आश्रम वाले उज्जैन नगर में .
अपने दायित्व पूरे होने तक फिर-फिर इस रमणीयता का आनन्द लूँ ,कुछ समय यहां  निवास कर नई ऊर्जा सँजो लूँ ,यही चाहा था.कोई बड़ी कामना नहीं ! जीवन के उत्तर काल में ऐसे ही स्वच्छ-स्वस्थ जल-वायु वाले प्राकृतिक परिवेश में बहुत सीधा-सरल जीवन हो. पर समय के प्रवाह में परिवर्तन की गति बहुत तेज़ हो गई.जैसे सब-कुछ भागा जा रहा हो. आँखों के सपने भी कहाँ टिके पाते  !
अब कुछ भी वैसा नहीं .जिन जंगलों में टेसू के फूल  डाल-डाल अंगार दहकाते थे ,काट डाले गये. नदियों की निर्मल जल-रागिनी ,भीषण प्रदूषण की भेंट चढ़ गई.अमरकंटक की वह दिव्य छटा श्री-हीन हो चुकी है .
वही हाल  उत्तरी  भारत का - सरिताओं के प्रवाह बाधित ,दूषित. श्रीनगर की डल झील दुर्गंध और कीचड़ से भरी ,नैनी झील पॉलिथीन के थैलों  से पटी ,सब कुछ सूखता जा रहा ..पर्वतों की रानी मसूरी पर हरियाली के वस्त्र नाम-मात्र को रह गये .हिमगिरि के शृंखलाबद्ध रूप से किरीट  सजे शीर्ष  के  ,गंगा-यमुना-सिंधु से युक्त  संपूर्ण उत्तरी भूमि के बहुत गुण-गान पुरातन काल से कानों में गूँजते  रहे  .पर आज देकती हूँ उन सब पर दूषण की घनी छायायें घिरी  है . कभी सोचा नहीं था जीवन-पद्धति इतनी बदल जायेगी .
गंगा-यमुना को नभ-पथ का  दिव्य जल-प्रदान करती  हिमानियाँ लगातार सिमट रही हैं, धरती पर आते ही उन्हें बाँधने का ,अवशोषित करने का ,क्रम शुरू हो जाता है. महाभारत काल की अनीतियाँ सह न पा सरस्वती विलुप्त हुईं  ,आज मानव नाम-धारियों की दुर्दान्त तृष्णा सभी सरिताओं में विष घोल रही है .
 बिना गंगा-यमुना के (सरस्वती तो
ओझल हैं ही ),शिप्रा -नर्मदा ,गोदावरी कावेरी के ,भारत ,भारत रह पायेगा क्या?वनों-पर्वतों का उजड़ता वैभव आगे जीवन पर क्या प्रभाव डालेगा,सोचना भी मुश्किल लगता है .
जो सपना बीस बरस  लगातार देखती रही थी ,इधऱ पाँच दशाब्दियों से निरंतर उसका क्षरण देख रही हूँ , वह सब काल की रेत में मृगतृष्णा बन कर रह जायेगा क्या ?
*


*
(परिचर्चा के लिए)
"अरेंज्ड मैरिज और लव मैरिज "  क्या सही है !
मानव-स्वभाव इतना भिन्नतापूर्ण है और जीवन इतनी कंप्लेक्स चीज़ है कि किसी  सही-ग़लत का निर्णय हर परिस्थिति, में हर व्यक्ति  पर नहीं थोपा जा सकता .एक जगह  जो कुछ ठीक लगता है दूसरी परिस्थिति में वह गलत सिद्ध हो सकता है . 
विवाह एक  सामाजिक संस्था है  जोमानव वृत्तियों के तोषीकरण ,नियमन एवं ऊर्ध्वीकरण के साथ, सृष्टि का क्रम चलाने और उसे व्यवस्थित रखने के लिये बनाई गई है .विवाह स्त्री-पुरुष का एक जोड़ा संयोजित करता है-  परिवार  रचने के लिये  जिसमें  आजीवन दायित्व निभाने की सहमति, पारिवारिक जीवन के साथ सामाजिक मर्यादाओं की रक्षा ,परंपराओं की स्वीकृति और सामाजिक संबंधों के निर्वहन की अपेक्षा की जाती है.(प्रेम-विवाह में इस सब बातों में  ढील पड़ जाती है ).समाज के बीच परिवार  में जन्म ले कर हमने जो सुरक्षा और सुविधाएँ  पाई उनका ऋण चुकाना प्रत्येक व्यक्ति का दायित्व बनता है .जिससे निरंतरता बनी रहे .इसी की पूर्ति के लिये गृहस्थ जीवन की कल्पना की गई  .विवाह उसी गृहस्थ-जीवन का प्रारंभ है .
पूर्वकाल में हमारे यहाँ विवाहों की कई कोटियाँ थीं ,पर अब सामान्यतः दो प्रकार के देखे जाते हैं. 
1.परिवारों द्वारा  निश्चित किया गया .
2. प्रेम से प्रेरित हो कर किया गया .
  पहले प्रकार मैं परिवारिक संस्कारों की अनुरूपता के आधार पर पहले विवाह होता है फिर उसके बाद पति-पत्नी में ताल-मेल बैठने का क्रम शुरू होता है. परस्पर सहानुभूति ,विश्वास और प्रेम का विकास क्रमशः होता है 
 प्रेम-विवाह में ताल-मेल (कितना है वही दोनों जाने ) पहले बैठ जाता है - दुनियादारी से निरपेक्ष आपस की समझ एक दूसरे को अनुभव कर बनती है विवाह का संस्कार का नंबर बाद में आता है .
सामान्यतया  जो देखने में आता है -  प्रेम-विवाह में पारिवारिकता और सामाजिकता के स्थान पर वैयक्तिकता हावी रहती है, ,वह अपनेी दुनिया में ही  रहना चाहता और सामाजिक मर्यादाओं को महत्व नहीं देना चाहता. प्रारंभ के आवेग में सब सुन्दर ,मोहक लगता है  लेकिन जब सम पर आकर  जीवन सहज गति से चलने लगता है ,आगे के (पारिवारिक तथा अन्य)दायित्वों के  निर्वहन में कोई बाधा पड़ने पर  या परस्पर किसी गलतफ़हमी अथवा अन्य कारण से गतिरोध की स्थिति उत्पन्न होने पर मुश्किल हो जाती है .
जब कि सामान्य विवाह में कोई गतिरोध आने पर दोनों के परिवार सहारा देते हैं .उसे दूर करने में सक्रिय भूमिका निभाते हैं. इस आधार और सहयोग से विषम परिस्थितियाँ भी सँभल जाती हैं .
विवाह कैसा भी हो  दोनो ओर के परिवारजनों की स्वीकृति और सहयोग बना रहे तो सोने में सुहागा !
 यहाँ अमेरिका में तो सभी प्रेम-विवाह करते हैं .तलाक भी धड़ल्ले से होते हैं.इन स्थितियों में बचपन कितना अरक्षित अनुभव करता है, आघात झेलता है ,कैसा कुंठित हो जाता है मैंने देखा है.किशोरों में कैसी-कैसी ,गलत आदतें विकसित होने लगती हैं जो व्यक्तगत जीवन और समाज के लिये घातक होती हैं.परिवार का स्नेहमय संरक्षण और संस्कार मिलते रहने पर इस प्रकार की विकृतियाँ  नहीं आती.
 विवाह के लिये जिस प्रतिबद्धता की आवश्यकता है ,उसमें खरा उतरना सबसे पहली बात है .परिवार ,समाज का दबाव भी कारगर होता है 'छूट पाते ही मानव-मन अपने को नियंत्रित कर ले यह हमेशा संभव नहीं होता ,थोड़ा दबाव चाहिये ही ,अपने से बड़ों का ,जिन पर विश्वास हो .एक सहारा हमेशा के लिये बना रहे तो बहुत अच्छा है.
पारस्परिक विश्वास और सौमनस्य पूर्वक कर्तव्यों को निभाने में ही गृहस्थ-जीवन की सफलता और चारुता निहित है . चाहे प्रेम-विवाह हो या तय किया गया इसी में उसकी गरिमा है.
- प्रतिभा सक्सेना...

गुरुवार, 2 अगस्त 2012

सब एक से

 *
उस दिन अपनी सहकर्मी नित्या के साथ दुनिया भर की गप्पें चल रहीं  थीं.
इतने में देखा क्या  कि  भानमती ,खुले दरवाज़े से भीतर चली आ रही है .चेहरा देख कर लगा कुछ खिसियायी हुई है .
नित्या को भी रुचि है मेरी इस निराली सहेली में.
मेरे टोकने पर हल्के से मुस्करा दी ' ई तो मरदन की दुनिया है !'
'पर हुआ क्या ये भी तो बताओ .'
बोलने लगती है वह,' जइस मेहरारू न होय, कोई जिन्स हुई गई .अरे ओहू तो इंसान है .मेहरारू तुमसे जियादा काम करत है तब ओहिका रोटी मिलत है .का गरीब का अमीर ...'
  नित्या मेरे पास बैठी सब सुनती रही .
'क्या हो गया भानमती ?काहे बिगड़ रही हो ?'
वह हाथ झटक कर बोली ,' ई मरद !हम का का समुझत हैं. न अपनी कहि सकत न हमारी सुनन की ताब , 'औरत हो क्या बात करें' .कोई खासै बात होय तो कहन लगत हैं ,अपने मरद को भेज देना ,काहे? हमसे बात करन में उनकी तौहीन हुइ जात है . एक मरद दूसर की  बातन को जियादा वजन देगा .ऊ आपस में तय करेंगे . का कहे से कि , मरद की मूंछ नीची न हो जायेगी .!  मेहरारू मानेगी नहीं तो जायेगी कहाँ ? पढ़े-बेपढ़े सब एक से !'
उसका कहना था ,एक तो मेहरारुन को उत्ती छूट नहीं ,मार दुनिया भर की रोक-टोक ,सो उनका सोच-वेवहार दुनिया के हिसाब से कैसे बन पाय ? मरदन के इहै लच्छनन के कारन ,सारी रोकें हम लोगन पर ...'


भानमती ,दब्बू किस्म की नहीं है .जाड़ों में जहाँ अलाव जलता है वहाँ अपने साथ के मर्दों के साथ बैठ कर कभी-कभी बीड़ी पी लेती है .
मेरी समझ में एक बात आज तक नहीं आई कि अक्सर लोग स्त्रियों से घबराते हैं, कहते हैं कि वे उन्हें समझ नहीं पाते(क्या दूसरे आदमियों को एकदम समझ लेते हैं)जब कि जन्म से,किसी न किसी रूप में वे उनके जीवन के लिये अनिवार्य रहीं,उनके बिना काम नहीं चला .स्वयं को विशेष प्रकार का मानने की मानसिकता रखने के कारण कभी किसी नारी,चाहे वह उनकी माँ या बहिन ही क्यों न हो ,को अपने समान एक व्यक्ति नहीं मान पाते.
 भानमती तो ग़ुबार निकाल कर चली गई पर एक टॉपिक छोड़ गई .
नित्या का कहना था,' उन्हें रिमोट अपने हाथ में चाहिये ,'


'हाँ ,मैंने भी देखा है .अपने भारत में (विदेशों में नहीं) . काफ़ी लोग स्त्री से  घबराते हैं .'
जो लोग स्त्री को वस्तु समझते हैं व्यक्ति की गरिमा नहीं दें ,तो उसकी अभिव्यक्ति को कैसे समझें ,स्वाभाविक हो कर सुनेगे ही नहीं !  
नित्या का कहना था एक बात बड़ी अजीब लगती है ,  ,जो स्त्री उन्हें इस संसार में लाती है ,पालन-पोषण कर सहज-स्नेह से सहेजती है ,उसे वे प्रकृति की एक वस्तु समझ कर किनारे कर देते हैं
 एक पहेली बना देते हैं ,मुझे तो लगता है ये ख़ुद एक पहेली हैं.'
देखो न ,हमारे यहाँ तो परिवार प्रथा है ,कोई पर्दे का रिवाज तो है नहीं . बचपन से जिनके साथ रहे- अपनी बहिंने ,ममेरी चचेरी ,फुफेरी ,उनकी सहेलियाँ ,माँ उनकी बहनें सहेलियाँ ,तो वे क्या कुछ अलग प्रकार की थीं ?और  बाहर जो मिलती हैं .घर की यही महिलायें तो हैं . '.
' तुम इतना भी नहीं समझतीं ,अपने घर की महिलायें हैं ,बाकी सब तो औरतें ..'
  भानमती की बात पर, यह एक प्रतिक्रिया मेरी  ,सारे मर्द अपने लिये न समझें !
वैसे थोड़ी-सी मर्यादा तो पुरुषों के बीच भी चलती होगी . ,कोई वय में बहुत बड़ा है कोई छोटा ,.विद्वान-मूर्ख ,गंभीर ,चंचल ,उसी हिसाब से व्यवहार करते होंगे ..और संबंधों के आधार पर भी.
पर स्त्री की चर्चा  आते ही सारी सहजता ग़ायब !'
 आश्चर्य काहे का  ? ऐसे लोगों के  अलग-अलग खाँचे कि ये आदमी का, ये औरत का .तब भी उसे चैन नहीं पड़ेगा कि ये लोग ऐसी क्यों हैं ?उसकी हर  गति-विधि पर छिपी  नज़र रखे रहते हैं ,
 हाँ ,आदमी अपने खाँचे में रह सकता है , जाति में रह सकता है रहे .पर स्त्री जब बाहर निकलती है तो उसे आदमियों से भरी दुनिया में रहना होता है ,उनसे व्यवहार किये बिना काम नहीं चलता ,इसे वे , सहज भाव से स्वीकार नहीं कर पाते .'
नित्या ने एक और बात कह दी ,
'हमारे यहाँ के आदमी बहुत समर्थ हैं ,उनकी चले तो विदेशी औरतों को ,पूरी मर्यादा के साथ रहना सिखला दें  और उसका शरीर( जिसे येआँखे फैलाये देखते रह जाते हैं) अच्छी तरह छिपा कर  लाज-शरम की दुहाई देने लगें .'
'औऱ अपनी वालियों को ?'
'उन्हें पुराने ज़माने के कपड़े पहना कर मूँद-ढाँक दें .'
,'और खुद के लिये ?'
'अरे, खुद के लिये कैसी रोक नये से नये ढंग. पैंट से आगे हॉफ़पैंट ,जीन्स ,पूरी आधी ,शर्ट स्लीवलेस या टी शर्ट सब चलेगा .वे तो आदमी हैं ,खुले घूमें तो क्या !'
'और हमारे कपड़े देखते  हैं ,'
' कपड़े ?'
ये नित्या बड़ी बेढब है  .हँसी तो आ ही जाती है .
*

सोमवार, 3 जनवरी 2011

बेवकूफ़

*
'यार ,ऐसा कोई उपाय बताओ कि पत्नी से कहा-सुनी में हार न माननी पडे .'


'तुम्हारी पत्नी बोलने में ही तेज है ,या दिमाग से भी ?'

'दोनों में .'

फिर ?'

'हम लोगों का रोज झगडा होता है .'

'क्यों ?'

'वह कुछ कहती है ,तो मुझे ताव आ जाता है .मैं तेज़ पड जाता हूँ ,कि वह दब जाये .'

'कोई फायदा होता है ?'

'नहीं . खिसिया कर मैं ही चुप हो जाता हूँ .'

'तो पहले ही चुप रहा करो .'

'फिर वह दबेगी कैसे ?'

'तुम सोच लिया करो वह बेवकूफ है ।'

'पर वह बेवकूफ नहीं है '

'तो तुम बेवकूफ हो , अपनी बेवकूफी खुलने के पहले ही यह सोच कर चुप रहो कि वह बेवकूफ है .'

'अरे हाँ ,यह तो मैंने सोचा ही नहीं .मैं तो सच्ची बेवकूफ़ हूँ . '

*

बुधवार, 29 दिसंबर 2010

स्त्री

*
कल हमारे पड़ोसी शास्त्री जी के बहनोई आये थे .
बातों-बातों में बोले -
'हमारे साले शास्त्री जी स्त्री  के बिना बिलकुल नहीं रह  सकते.  समझो बिलकुल बेकार हो जाते हैं.तो  हमेशा साथ लिये घूमते हैं .'
'क्या कह रहे हो ?'
'सच कह रहा हूँ .'
'अच्छा.तुम्हीं से सुना ,और तो कोई नहीं कहता ?'
 'तुम ख़ुद देख लो ,कोई कहे चाहे न कहे .सच तो सच ही रहेगा '.
किसी की समझ में ही नहीं आ रहा था .
'बहस करने से कोई फ़ायदा नहीं .तुम्हीं देखो ''शास्त्री" की "स्त्री" निकाल दो तो क्या बचा?'
 "शा" .
*

शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

घर और घाट

*
मेरे साथ की एक प्रवक्ता खीझ कर कहा करती थीं ," साठ की हो जाऊं फिर किसी की नहीं सुनूँगी ...."

वह सोचती थीं साठ पार करते ही ,छूट मिल जाएगी !

कहती थीx ,"और रुके है थोड़े दिन .पार हो जाने दो साठ ,फिर तो जिसके साथ चाहें निश्शंक बोलेूँ . किसी से छिपा कर क्यों चौराहे पर खड़ी हो कर हँसूँगी, बोलूंगी ,

"अभी तो ज़रा सा किसी के साथ बैठ कर कुछ डिस्कस कर लिया तो लोगों की निगाह में तमाशा बन जाते हैं -ये कोई नहीं देखता कि हमारी उम्र क्या है , भावना क्या है . बस निगाहें तौलने लगती हैं ये क्या कर रही है,क्यों कर रही है !अपनी कुंठाएँ लाद देते हैं .अरे करूँगी क्या ,बात ही तो कर रही हूँ."

मैं खुद नहीं समझ पाती कि ऐसा क्यों होता है .

"एक उम्र के बाद तो कम से कम इस सबसे मुक्त कर दो ,एक व्यक्ति के रूप में- अपनी रुचियों के अनुसार निश्चिन्त हो कर जी लेने दो,"

अक्सर तो उसे चिढ़ा कर उकसाने के लिए के लिए हम लोग छेड़ देते पर उसके कहने में तथ्य था .

हर जगह याद दिलाते रहा जाय -तुम नारी हो ,तुम्हें नारी की तरह रहना चाहिए. .

ग्राम्य शब्दों में कहें तो ,"अरे ,औरत हो औरत,की तरह रहो !"

हमेशा याद दिलाते रहा जाएगा तुम औरत हो, तुमसे जो अपेक्षित है वही करो.और यह हम बताएंगे कि क्या करना कैसे रहना चाहिए .

स्वाभाविक रूप में सहज व्यवहार स्वीकार्य क्यों नहीं ? हमेशा दूसरों के हिसाब से चलें ,उनकी मानते रहें तो ठीक ! नहीं तो ,स्वेच्छाचारी ,निरंकुश, उच्छृंखल ,स्वच्छंद जैसे शब्द गालियां बना उछाले जाएंगे उस पर ! ऊपर से धमकी -न घर की रहोगी न घाट की !(सचमुच घर और घाट दोनों पर एकाधिकार है जिसका वह चाहे जो करे -कौन टोक सकता है उसे!)

जो स्वाभाविक है वही आचरण तो कोई करेगा याद दिलाने की ज़रूरत क्या है ?क्या किसी से कहा जाता है ,माँ हो माँ की तरह रहो ,या बहन हो बहन की तरह रहो .वह तो अपने आप होता जाता है .

इसी का दूसरा पहलू देखिये - ,पति हो पति की रह रहो (पत्नी पर शासन करते हुए)

,या आदमी की तरह (हमेशा तन कर सारे अधिकार समेट कर).

व्यक्ति का व्यक्ति से जो स्वाभाविक संबंध होता है-सहज, उदार .वह स्वीकार्य क्यों नहीं.एक महिला के लिए अपने आप में एक व्यक्ति होने की गरिमा,क्यों नकार दी जाती है ?

एक व्यक्ति के रूप में रहने का अवसर कभी क्यों नहीं मिले -अपने सारे दायित्व पूरे कर चुकने के बाद साठ पार - सत्तर पार कर के भी नहीं . स्त्री है सिर्फ़ इसलिए तमाम वर्जनाओं के साथ जीना उसकी नियति !इस उम्र तक जो अच्छी बनी रही तो अब कोई उसे बिगाड़ नहीं सकता ,और अगर बिगड़ी हुई है तो कोई उपाय उसे सुधार नहीं सकता- यही सोच कर निश्चिन्त क्यों नहीं रह सकते लोग !

*

गुरुवार, 25 नवंबर 2010

दोनों एक साथ

*



उस दिन पड़ोसवाली वंदना आई बोली ,' समझ में नहीं आता ,सुबह जल्दी-जल्दी के कामों में कैसे इनसे सहयोग लूँ ?'

'क्यों .मना करते हैं ?'

'मना नहीं करते ,कर भी देते हैं जब कहो तब ..पर मैं चाहती हूँ एक जिम्मेदारी ले लें कि में निश्चिन्त हो जाऊँ .हर समय हड़बड़ाई सी हर तरफ़ न दौड़ना पड़े '.

'उनके सुपुर्द कर दो ये तुम्हें करना है ,'

'हाँ, किया था मैं.किचन सम्हालूं और वे बच्चों के जूते-मोज़े ठीक कर दें ,उनकी बॉटल भर दें ,'

'तो ?'

'तो क्या ,ध्यान नहीं रहता. पेपर हाथ में ले लिया तो उसी में डूब जाते हैं,न्यूज़ सुनने लगे तो उसी के हो गये.फिर किसी से मतलब नहीं . काम करते-करते मैं ध्यान दिलाती रहूँ '.

'ये तो मैंने भी देखा है इन लोगों का दिमाग एक बार में एक ही तरफ़ चलता है.वन वे ट्रैफ़िक .'

'और किचन से चिल्लाऊँ तो वहीं से क्या-क्या करते रहेंगे . जाकर कहूँ तब पूछेंगे- क्या ?'

रोज़-रोज़ की वही कहानी .

सच्ची बड़ी मुश्किल है

किचन में काम करते पर कहाँ-कहाँ ध्यान रखे और , धीरे से कोई सुनता नहीं .

रोज़-रोज़ की चीख-पुकार से तंग आकर उसने एक उपाय निकाला

एक बोर्ड बना कर टाँग दिया - रोज़ शाम को लिख दिया जाय कि सुबह कितने बजे इन्हें क्या करना है . क्या करना है और वे अपने आप देख लेंगे .

बता भी दिया फ़ौरन तैयार हो गए .

टँग गया बोर्ड -

सुबह ,सात बजे देखना है बच्चे ब्रश कर रहे हैं ,

फिर आदि साढ़ेसात कर नाश्ते के लिए तैयार ,

पौने आठ से पहले स्कूल के लिए निकल जाना है .

निश्चिन्त हो कर वंदना नाश्ता लंचबॉक्स तैयार करती रहेगी बीच-बीच में दौड़ना -चीखना नहीं पड़ेगा .

*

सुबह का काम शुरू .

लंच बाक्स और नाश्ता तैयार कर रही है वंदना .

कहीं कोई आहट नहीं .

सुबह सात पैंतीस ,,,और पाँच मिनट,

तवा उतार कर गई .

अरे, सात सैंतीस हो गए ,तुम यहाँ निश्चिंत बैठे हो ....'

'तो क्या करूँ ?'

'क्यों बोर्ड पर लिखा है न !'

क्या लिख दिया बोर्ड पर, कहाँ?

बताया तो था ,इधर बेडरूम के बाहरवाली गैलरी में सामने. तुमने पढ़ा नहीं ..?'

'तुम बता दो हम उधर गए ही नही .'

बता दिया चलो ,दो-एक दिन यही सही ,

इतवार पड़ गया .सोमवार को फिर सात चालीस हो रहे थे ,ले जा कर बोर्ड सामने किया, 'हम क्या करें इसका ?'

'पढो '.

'शेव कर रहे हैं. चश्मा कहाँ लगा है तुम बता दो .'

बताया .

'अरे हाँ, अभी जा रहे हैं जरा टाइम और बता दो . और सुनो यहाँ तक आई ही हो तो हम तौलिया बेडरूम में भूल आये हैं ,ज़रा पकड़ाती जाना .'

'उफ़्फ़!

एक बार भी जो सुबह उठ कर पढ़ लें!एक बार घड़ी ले जा कर सामने कर दी '.

कहने लगे ,'घड़ी को क्या हुआ?'

'टाइम देखो.'

'हाँ हाँ ,देख लिया ,अरे सात बीस हो गये!अरे , पहले क्यों नहीं बताया . इत्ती देर में हम क्या-क्या कर लेंगे अभी तो हमने ब्रश भी नहीं किया !

'जरा तुम्हीं पहले से याद दिला दिया करो. हमने काम करने को मना किया क्या कभी ?'

हे भगवान !

वह पूछती है ,'तू ही बता अब मैं क्या करूँ - रोऊँ कि हँसूँ ?'

एक साथ, दोनों चलेंगे .

और मैं क्या कहूँ भला !

*

शनिवार, 30 अक्टूबर 2010

भूखा -

*


मेरा बेटा अपने छुटकन्ने-से भाँजे से लड़ रहा है .

बेटा कोई बच्चा नहीं 27 साल का बाकायदा सर्विस कर रहा इंजीनियर ,शादी भी हो चुकी है .

और मेरा नाती -3-4 साल का बच्चा ,अभी तुतला कर बोलता है .

वह कहता है ,'उठो यहाँ से .मेरी नानी हैं उनके पास मैं लेटूँगा .'

और मेरा बेटा आ लेटा है मेरे पास ,'मेरी माँ हैं मैं लेटूंगा. तुम जाओ अपनी मम्मी के पास !'

पर वह तो मुझ पर सिर्फ़ अपना अधिकार समझता है .

मामा से कह रहा है ,उसके कमरे की ओर इशारा कर के ,' वहां जाओ !'

'नहीं जाऊँगा ,मेरी माँ हैं. तुम जाओ अपनी मम्मी के पास.'

पर वह क्यों जाने लगा उसकी तो मम्मी की मम्मी हूँ  मैं ,दोहरा अधिकार !

 मुझे हँसी आ रही है .दोनों सही हैं मैं क्या बोलूँ?

एक तरफ़ एक तो दूसरी तरफ़ दूसरे को लिटा लूँ तो भी मुश्किल ,उसकी तरफ़ मुँह मत करो ,मेरी तरफ़ करो .

मूल तो अपना हई है ,पर ब्याज उससे भी प्यारा लगता है .

'जाओ वहां' वह फिर उसेकमरे का रास्ता दिखा रहा है .

'अरे, बेटा, वह बच्चा है , तुम्हीं रहने दो .'

'पर ये तो बराबर से लड़ता है माँ ,हमेशा सबके सामने भूखा,भूखा कहता है मुझसे.'

यह छुटक्का भी कुछ कम नहीं है .

मेरा बेटा किसी से ज़रा सा चिल्ला कर बोल दे तो ', हत् हत् हत्, भूखा कहने लगता है ,

पहले मेरे बेटे ने उसने विरोध किया फिर मुझसे शिकायत की ,'माँ ,देखो ये मुझसे भूखा कह रहा है!'
पर मैं क्या करूँ .इत्ता छोटा है इसे समझाऊँ कैसे

होता यह था कि मेरी बेटी की पहली संतान यही छुटक्का ,जब रात-बिरात रोना शुरू करता , तो वह खीझना-डाँटना शुरू कर देती .

मैं कहती ,'वह भूखा होगा इसलिये शोर मचा रहा है .'

'अरे माँ ,अभी तो दूध पिलाया है ,उसमें से भी छोड़ दिया .'

'ये बच्चे ऐसे ही झिंकाते हैं ,एक बार में पीते नहीं और ज़रा देर में फिर रोना शुरू ..'

मैं जानती हूँ यह सब झेले जो बैठी हूँ .

अरे ,बच्चे तो बच्चे ,यहाँ तो बड़े-बड़े ,भूखे होते हैं तो क्या रौद्र रूप दिखाते हैं !

मेरा यह बेटा छोटा था तब तो भूख लगने पर उपद्रव मचा देता था और अब भी ,जब खूब बड़ा हो गया है -पेट खाली होता है तो बात-बात पर उलझने लगता है .ज़रा-ज़रा बात पर लड़ जाता है .

मैं जानती हूँ न उसकी आदत !झटपट  खिला-पिला देती हूं और फिर सब ठीक !

तो मैंने कहा,' भूखा है इसलिये चिल्ला रहा है .'

सुन-सुन कर बच्चा अपने ढंग से समझने लगा .

मामा को चिल्लाते सुनता है तो कूद-कूद कर उससे 'भूखा-भूखा' कहता है .

वह चिढ़ कर मना करे तो,'हत् हत् हत् भूखा.' कहने लगता है .

और इसे शिकायत है कि ज़रा सा है और उसे' हत्-हत्' कर भूखा कह रहा है .

'जीजी देखो ,ये मुझसे भूखा कह रहा है .'

'मैं क्या करूँ भैया ,ये तो कन्नौज में पापाजी (अपने दादाजी) से भी .. '

आगे उसने बताया -

'एक बार तो हद्द कर दी इसने .

वहां पापाजी (बेटी के ससुर)किसी पर नाराज़ होकर चिल्ला रहे थे.

पहले तो यह देखता सुनता रहा फिर उनकी चारपाई पर चढ़ गया और उनकी ओर मुँह कर खड़ा हो कर उन पर चिल्लाने लगा,' भूखा,भूखा .'

वे रुक गये . तब वह भी चुप हो गया ,और जब वे फिर नाराज होकर अपनी बात कहने सगे तो

फिर वही उनके लिए,' भूखा,भूखा' कहना शुरू. .

उन्होंने मुझसे पूछा ,'ये क्या कह रहा है ?'

उसने फिर दोहरा दिया.

मैं कैसे बताऊँ !

उन्होंने फिर पूछा,'क्या कह रहा है यह?

'पता नहीं पापा जी ,जाने क्या बके जा रहा है .कहीं से सुन आया होगा .'

बड़ी मुश्किल से इसे बहला कर वहां से ले गई .'

वह भी बेचारी क्या करती !

मैंने तो देखा है उधिकतर बच्चे भूखे होने पर क्या उपद्रव मचाते हैं .
लड़ाई-झगड़ा ,मार-पीट तक पर उतारू  ,

 मेरा तो पोता भी ऐसा ही है .सबसे लड़ने पर आमादा हो जाता है और उदर पूर्ति होते ही परम संतोष. फिर मिल कर हँसना-खेलना शुरू .वही बात -पेट में पहुँचा चारा तो हँसने लगा बिचारा !'

सही कहा  है - 'बुभुक्षितम् किम् न करोति पापं .'
*