*
'यार ,ऐसा कोई उपाय बताओ कि पत्नी से कहा-सुनी में हार न माननी पडे .'
'तुम्हारी पत्नी बोलने में ही तेज है ,या दिमाग से भी ?'
'दोनों में .'
फिर ?'
'हम लोगों का रोज झगडा होता है .'
'क्यों ?'
'वह कुछ कहती है ,तो मुझे ताव आ जाता है .मैं तेज़ पड जाता हूँ ,कि वह दब जाये .'
'कोई फायदा होता है ?'
'नहीं . खिसिया कर मैं ही चुप हो जाता हूँ .'
'तो पहले ही चुप रहा करो .'
'फिर वह दबेगी कैसे ?'
'तुम सोच लिया करो वह बेवकूफ है ।'
'पर वह बेवकूफ नहीं है '
'तो तुम बेवकूफ हो , अपनी बेवकूफी खुलने के पहले ही यह सोच कर चुप रहो कि वह बेवकूफ है .'
'अरे हाँ ,यह तो मैंने सोचा ही नहीं .मैं तो सच्ची बेवकूफ़ हूँ . '
*
सोमवार, 3 जनवरी 2011
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
sahi hai pratibha ji .....:-)
जवाब देंहटाएंभलाई भी इसी में है ...शुभकामनायें आपको !
जवाब देंहटाएंआदरणीया प्रतिभा सक्सेना जी
जवाब देंहटाएंप्रणाम!
आपकी अन्य लघुकथाओं की तरह ही बेवकूफ़ भी श्रेष्ठ लघुकथा है ।
आपके समग्र लेखन के लिए बधाई और साधुवाद !
~*~नव वर्ष २०११ के लिए हार्दिक मंगलकामनाएं !~*~
शुभकामनाओं सहित
- राजेन्द्र स्वर्णकार
ज़िन्दगी में इसी तरह अपनी सोच में जरा सा बदलाव ला देने से कई कई बार बात बन जाती है !
जवाब देंहटाएं-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
सही कहते हैं मर्मज्ञ जी ..aur शायद सोच के इसी अनुकूल बदलाव को परस्पर समझदारी कहते होंगे...
जवाब देंहटाएंहलकी फुलकी लघु कथा मगर संदेश उतना ही गंभीर और बेहद अहम भी.....
बधाई प्रतिभा जी...!